SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 88 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 रूप- पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का ध्यान करना रूप ध्यान कहलाता है। रूपातीत- जो रत्नत्रय स्वरूप निरालंब ध्यान किया जाता है और रत्नत्रय से युक्त है तथा इसी कारण जो शून्य होकर भी शून्य नहीं है वह रूपातीत ध्येय है। निश्चयनय के कथन में ध्यान, ध्याता, ध्येय में भिन्नता नहीं है। आत्मा, अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए, अपने ही आत्मा हेतु से ध्याता है।” इस प्रकार कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये षट् कारक रूप परिणत आत्मा ही निश्चयनय की दृष्टि से ध्यान स्वरूप है। अप्रमत्त अवस्था से धर्म ध्यान का फल मोह के मूल इष्ट अनिष्ट बुद्धि का अभाव एवं चित्त की स्थिरता ही ध्यान है। ऐसे ध्यान का साक्षात् फल निराकुल मोक्ष सुख है। प्रसन्न चित्त रहना, धर्म से प्रेम करना, शुभ उपायों में रहना, उत्तमशास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना, जिनाज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करना ये सभी ध्यान के फल हैं। भावसंग्रह में ध्यान के तीन प्रकार के फल बताये हैं - १. वर्तमान भव में प्राप्त होने वाला फल : ध्यान के प्रभाव से अतिशय गुण प्राप्त हो जाते है। जैसे हजारों कोस दूर के पदार्थ को देख लेना, दूर के शब्द सुन लेना इन्द्रिय ज्ञान की वृद्धि एवं आदेश करने की शक्ति प्रकट हो जाती है। ध्यान से ज्ञान की पूर्णता, ऋद्धियाँ यति पूजा एवं केवलज्ञान होने पर जिन पूजा की प्राप्ति भी हो जाती है। २. परलोक सम्बंधी फल :- स्वर्गों में उत्पन्न होकर इन्द्रपद, अहमिन्द्र पद, लौकान्तिक पद आदि की प्राप्ति होना परलोक सम्बन्धी ध्यान का फल है। 40 ३. समस्त कर्मों का क्षय :- ध्यान के अंतिम फल आठ प्रकार के हैं - 1. औदारिक आदि शरीरों का नाश, 2. सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति, 3. तीन लोक प्रभुत्व 4. अनन्त वीर्य की प्राप्ति, 5. सम्यग्ज्ञान, 6. सूक्ष्मत्व, 7. अगुरुलघुत्व, 8. अव्याबाध दर्शन इन आठ गुणों की प्राप्ति होने से लोकाग्र में स्थिर हो जाना' अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर पूर्ण शुद्धता को प्राप्त हो जाना ध्यान का तीसरा फल है। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में धर्म ध्यान के सालंब एवं निरालंब दोनों प्रकार के ध्यानों की मुख्यता रहती है। इस गुणस्थान में छ: आवश्यकों की आवश्यकता नहीं होने से ध्यान में लगा हुआ मन निरन्तर अत्यंत स्थिर हो जाता है। ८ अपूर्वकरण गुणस्थान एवं परिणामों की स्थिति संज्वलन और नो कषायों के मन्दतर उदय होने पर अध:करण परिणामों की प्रवृति में अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रह कर प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व विशुद्धि वाले परिणामों के धारण
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy