SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 83 विपरीत हो जाते हैं पित्तज्वर के रोगी के समान अपने हित अहित को नहीं जान पाते। यह मिथ्यात्व पाँच प्रकार का है। 1 विपरीत मिथ्यात्व 2 एकांत मिथ्यात्व 3 विनय मिथ्यात्व 4 संशय मिथ्यात्व 5 अज्ञान मिथ्यात्व मिथ्यात्व गुणस्थान में अशुभ ध्यान एवं उसका फल मिथ्यात्व के उदय ये यह जीव अनादि काल से चारों गतियों में अनेक शरीर धारण करता हुआ और विभिन्न प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ इस संसार में परिभ्रमण करता है यह जीव प्रबल मिथ्यात्व के कारण हमेशा आर्त और रौद्र ध्यान करता रहता है।' इन अशुभ ध्यानों के कारण यह जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है अनादि से अनंत काल तक परिभ्रमण समाप्त नहीं कर सकेगा। यह जीव धर्म के स्वरूप को न समझने के कारण नरक तिर्यंच गति को प्राप्त होंगे। यदि किसी प्रकार शुभ योग से मनुष्य गति प्राप्त हो जाती है तो अशुभ कर्मों के उदय से श्रेष्ठ कुल-जाति-देश-आयु प्राप्त न होने से क्षुद्र मनुष्य होकर भी दु:खी रहता है। यदि किसी प्रकार उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम आयु, आरोग्य शरीर आदि प्राप्त भी कर लेता है तो भी आर्तरौद्र ध्यान के कारण एवं मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन करता हुआ सच्चे मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाता। २ सासादन गुणस्थान और परिणाम सम्यक्दर्शन के छूट जाने के बाद जब तक मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त नहीं होता है तब तक का काल सासादन गुणस्थान कहा जाता है। जिस प्रकार कोई पुरूष पर्वत से गिरता है परंतु अभी पृथ्वी पर नही आया वह न तो पर्वत पर कहा जा सकता है और न पृथ्वी पर किंतु मध्य में माना जाता है इसी प्रकार सम्यक्त्व से पतित जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त नही हुआ तब तक उसके सासादन गुणस्थान कहा जाता है। तत्त्वसार में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों में किसी एक के उदय होने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पतित हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, तब तक की मध्यवर्ती अवस्था सासादन गुणस्थान की कही है। गोम्मटसार में जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व एवं द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की स्थिति कम से कम एक समय, अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण शेष रहती है, तब तक जीव के अनन्तानुबंधी कषाय के चार भेदों में से किसी एक भेद का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने से आत्मा की अवस्था नीचे गिरती है, और जब तक मिथ्यात्व भूमि का स्पर्श नहीं करती तब तक वह अवस्था सासादन गुणस्थान की कही है। आसादन से तात्पर्य विराधना से है अर्थात् इस गुणस्थान में जीव सम्यक्त्व की विराधना करता है और 'असन' का अर्थ है नीचे गिरना अर्थात् यह जीव मिथ्यात्व भूमि की ओर
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy