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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 श्रमण का लिंग जिनलिंग कहा जाता है वह दोष रहित होता है। उसमें पूर्णतया अचानक वृत्ति होती है। भावों की शुद्धि की प्रधानता होती है जैसा कि भावप्राभृत में भी कहा है "जिसमें पांच प्रकार के वस्त्रों का त्याग किया जाता है, पृथ्वी पर शयन किया जाता है, दो प्रकार का संयम धारण किया जाता है, भिक्षा भोजन किया जाता है, भाव की पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है, वही जिनलिंग निर्मल कहा जाता मूलाचार में दीक्षा योग्य पात्र तथा उसकी दीक्षा विधि आदि का वर्णन नहीं किया गया है किन्तु कहा गया है कि यदि श्रमण की चर्या यत्नाचार पूर्वक होती है, तो वह निर्दोष मानी गयी है। इसीलिए मूलाचार में साधु की प्रवृत्ति के संदर्भ में आचार्य ने प्रश्न किया है और स्वयं समाधान भी किया है। कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि॥ मूलाचार १०१४ श्रमण को जिस प्रकार से प्रवृत्ति करना चाहिए? कैसे खड़े होना चाहिए? कैसे बैठना चाहिए? कैसा सोना चाहिए? कैसे भोजन करना चाहिए? कैसे बोलना चाहिए? जिससे पाप का बंध न हो। इसी प्रश्न के उत्तर में आगे कहा है जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज जदो पावं ण वज्झई। मूलाचार १०१५ जदं तु चरमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो। णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि॥ मूलाचार १०१६ यत्न से ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से सावधानी पूर्वक जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन से बैठना चाहिए। सोते समय भी यत्न से संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई फलक आदि को उलट -पलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यल से भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पाप बन्ध नहीं होता है क्योंकि जो श्रमण यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दया भाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है, उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराने कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रसंग में और भी बताया गया है कि जो "जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है, वह क्रम से वध-हिंसा से रहित हो जाता है।' श्रमण समितियों का पालन करते हुए विहार करते हैं जो जीवों से भरे हुए संसार में भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होता है वह जीव जन्तु भरे रहने पर भी अपने देववंदना, आहार आदि कार्य समिति सहित ही करते हैं। यही कारण है श्रमण हिंसादि पापों से बंध ते नहीं हैं। कारण यह है कि पत्र के स्नेह गुणसहित होने पर भी उसमें पानी नहीं रुकता है उसी प्रकार श्रमण भी देववन्दनादि कार्य करते हुए जीवों में विहरने पर भी समिति सहित होने के कारण पापों से अल्पित रहते हैं। जिसने लोहे का दृढ़ कवच पहना है, ऐसा
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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