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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 67 जो पंचमहाव्रतधारी पंचसमितियों से संयत, धीर, पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त तथा पंचम गति के अन्वेषक होते हैं। तप-चारित्र आदि क्रियाओं में अनुरक्त पापों का शमन करने वाले होते हैं। संयम, समिति, ध्यान एवं योगों में नित्य ही प्रमाद रहित होते हैं वे श्रमण कहलाते प्रवचनसार में श्रमण के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंद समो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो॥३/२१ ।। जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, सुख-दु:ख समान है, प्रशंसा और निन्दा में समभाव रखता है, जिसे लोष्ठ और सुवर्ण समान है तथा जीवन मरण के प्रति समता है, वह श्रमण है। इसी प्रकार अन्य आचार्य ने भी लिखा है-सुख-दुःख में जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण है। आचार्य वट्टकेर श्रमण को सामायिक रूप में चित्रित करते हैं 'जिस कारण से अपने और पर में माता और सर्वमहिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान-अपमान आदि में समान भाव होता है।" इसी कारण श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं। यहाँ आचार्य श्रमण का स्वरूप भाव की प्रधानता से प्रतिपादित करते हैं वे श्रमणों को सावधान करते हुए कहते भी हैं भावसमणा हु समणा ण सेस समणाण सुग्गई जम्हा। जहिऊण दुविहभुवहिं भावेण सुसंजदो होई॥ मूलाचार १००४ भावश्रमण ही श्रमण हैं क्योंकि श्रमणों को मोक्ष नहीं होता। इसलिए हे श्रमण! दो प्रकार (अन्तरंग-बहिरंग) परिग्रह को छोड़कर भाव से सुसंयत होओ। आचार्यों ने श्रमणों के रत्नत्रय की ही प्रशंसा की है क्योंकि श्रमण का द्रव्यलिंग ही मोक्षमार्ग नहीं है अपितु उस लिंग/ शरीर के आधार से रहने वाला जो रत्नत्रय है, उसी से मोक्ष प्राप्त होता है। अतः श्रमण भावसहित उस द्रव्यलिंग को स्वीकार कर उसके माध्यम से अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर उसमें स्थिरता प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहते हैं। साथ में अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, अन्य श्रमणों को वन्दन, अभ्युत्थान, अनुगमन व वैयावृत्य करना प्रासुक आहार एवं विहार उत्सर्गसमिति पूर्वक निहार आदि क्रिया, तत्त्वविचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में विशेष उपवास चातुर्मासयोग शिरोनति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वन्दना, आचार्यवन्दना, स्वाध्याय, रात्रियोगधारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि शुभोपयोगी क्रियायें व्यवहार मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हुए श्रमण करते हैं। निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलने वाले ही परिपूर्ण श्रमण होते हैं परिपूर्ण श्रमण के स्वरूप को बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाम्मि दंसणमुहम्मि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपण्णं सामण्णो॥ प्रवचनसार २१४ जो श्रमण सदा ज्ञान और दर्शनादि में प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में प्रयत्नशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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