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________________ अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010 हृदय में कुटिलता रहती है वह परलोक में उसके सुखरूपी पर्वतों के विनाश के लिए बिजली का काम करती है। "19 59 अन्यायोपार्जित धन की दान में उपयोगिता कितनी सार्थक? धर्म यद्यपि पाप करने की अनुमति किसी भी रूप में नहीं देता किंतु पाप का क्षय करने एवं प्रायश्चित अंगीकार करने के लिए एक मात्र धर्म ही माध्यम है। इसी प्रकार जैन शास्त्र किसी भी रूप में यह आज्ञा नहीं देते कि अन्याय एवं पाप से धन अर्जित करो और उसका दान करते रहो एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करो। आचार्य पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेश में लिखते हैं-" जो मनुय दान करने की आशा से धन संचय करते हैं, वे उस मनुष्य की तरह है जो " स्नान कर लूँगा" इस आशा से पहले कीचड़ लपेटता है संचय से त्याग श्रेष्ठ है। आत्मानुशासन में आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि- "कोई विद्वान् मनुष्य विषयों को तृण के समान तुच्छ समझकर लक्ष्मी को याचकों के लिए देता है, कोई पाप रूप समझकर किसी को बिना दिये ही त्याग देता है। सर्वोत्तम वह है जो पहिले से ही अकल्याणकारी जानकर इसे ग्रहण नहीं करता।" दूसरी ओर अनेक आचार्यों ने दान का वर्णन पाप प्रक्षालिनी क्रिया के रूप में किया है आचार्य सकलकीर्ति ने लिखा है कि "महाहिंसादिजे पापकर्मेन्धनसमुत्करे। जगुः सुपात्रदानं हि बुधाः संज्वलनोपमम्॥" अर्थात् विद्वान् लोग इस पात्र दान को महाहिंसा आदि से उत्पन्न हुए पाप कर्म रूपी ईंधन के समूह को जलाने के लिए अग्नि के समान बतलाते हैं। " आचार्य पद्मनंदी ने पद्मनंदी पंचविंशतिका ग्रंथ में विभिन्न श्लोकों के माध्यम से उपदेश दिया है कि गृहस्थ द्वारा उपार्जित लक्ष्मी का सच्चा सदुपयोग दान में ही है। उन्होंने लिखा है कि-" करोड़ों परिश्रमों से सोचित किया हुआ जो धन प्राणियों को पुत्रों और अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है उसका सदुपयोग केवल दान देने में ही होता है इसके विपरीत दुर्व्यसनादि में उसका उपयोग करने से प्राणी को अनेक कष्ट ही भोगने पड़ते हैं।'22 आचार्य पद्मनंदी ने श्रावकों को समझाते हुए कहा है कि “सम्पत्ति दान करने से क्षय को प्राप्त नहीं होती, वह तो पुण्य के क्षय से क्षय को प्राप्त होती है। 23 कुरलकाव्य में लिखा है " श्रीमानों को गरीबों के पेट की ज्वाला शांत करने के उद्देश्य से धन संचय करना चाहिए, अर्थात् संचित धन से परोपकार करना चाहिए। 1124 सत्पात्र को दान करने के अभाव से इस जन्म के संचित पाप भी क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। हरिवंशपुराण में वर्णित कथानुसार कौशाम्बी नगरी के राजा सुमुख ने वीरक वैश्य की पत्नी वनमाला को अपने पास रख लिया था, वनमाला भी राजा सुमुख पर आसक्त हो गयी थी। उसी भव में उन दोनों ने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक उत्कृष्ट चारित्र के धारी वरधर्म मुनि को आहार दान दिया था। आकाश से बिजली गिरने से एक दिन दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए पर सत्पात्र दान के प्रभाव से विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में विद्याधर एवं विद्याधरनी के रूप में उत्पन्न हुए। " आगम प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि दान के प्रभाव से कृषि, व्यापार आदि में आरंभ से उत्पन्न हुए पाप का प्रक्षालन होता है। लेकिन अन्याय, अनीति एवं पाप
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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