SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 54 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 विश्व के सभी तत्त्वों का कथन हो वह शास्त्र द्रव्यानुयोग कहलाता है। द्रव्य का निरूपकद्रव्यानुयोग में प्रमाण, नय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, आदि विषयों का प्रतिपादन किया जाता है। यह अनुयोग आत्मा की बंध और मुक्त अवस्था का सम्यक् अवबोध कराता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः, श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥१६ __ जो जीव और अजीव तत्त्वों को, पुण्य और पाप को तथा बन्ध और मोक्ष को और बंध के कारण-आस्रव तथा मोक्ष के कारण संवर-निर्जरा को भी प्रकाशित करने वाला दीपक है, वह द्रव्यानुयोग है। द्रव्यानुयोग के विषय को आगम और अध्यात्म की अपेक्षा दो भागों में रखा गया है। इसके आगम सिद्धान्त एवं न्याय दो विभाग हैं और अध्यात्म के भावना और ध्यान की दृष्टि से दो भेद हैं। षट्खण्डागम, कसायपाहुड, गोम्मटसार, लब्धिसार सिद्धांतविषयक ग्रंथ हैं। न्याय संबन्धी ग्रंथों में अष्टसहस्री, श्लोकवार्तिक, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, आलापपद्धति, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि प्रमुख हैं। अध्यात्मपरक भावना ग्रंथ समयसार, प्रवचनसार परमात्मप्रकाश, योगसार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि प्रमुख ग्रंथ है जबकि अध्यात्मपरक ध्यान ग्रंथों में ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन, ध्यानस्तव आदि प्रमुख हैं। इन आगम में द्रव्यानुयोग के अध्ययन के लिए आवश्यक सामग्री है। जो सद्साहित्य के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं। पूजनीय गुरु का स्वरूप जैन परम्परा के महर्षियों को यति, मुनि, भिक्षु, तापस, तपस्वी, संयमी,योगी, वर्णी, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रमण, दीक्षागुरु, ऋषि, मोक्षमार्गी, दिगम्बर, निग्रंथ आदि नामों से जाना जाता है। ऐसे महर्षि पंचेन्द्रिय विषयों से विरत रहते है। हिंसा, झूठ-चोरी, कुशील, परिग्रह आदि दोषों से दूर रहते हैं और अंतरंग-बहिरंग परिग्रह/ लोभ-माया आदि के त्यागी होते हैं, गृहत्यागी दिगम्बर होकर ज्ञानाभ्यास, ध्यानयोग, तपश्चरण में सर्वदा दत्तचित्त रहते हैं। ऐसे महात्मा स्वपर हितकारी कर्त्तव्य पर स्वयं चलते हैं और भव्य जीवों को चलने का उपदेश देते हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखते हैं विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तः, तपस्वी स प्रशस्यते॥१६ जो विषयों की आशा के वश से रहित हो, आरंभ और परिग्रह से रहित हो तथा ज्ञान, ध्यान, तप में निरत हो, ऐसे वह तपस्वी गुरु प्रशंसा के योग्य हैं। कविवर द्यानतराय देवशास्त्र गुरु पूजन के जयमाला पाठ में गुरु की स्तुति/महिमा लिखते हैं गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपै शिव-पद निहार॥६॥
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy