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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 आधुनिक युग में 'सामायिक' एक ऐसी क्रियाविधि हो सकती है जिसमें सभी संप्रदाय समान रूप से शिरकत कर सकते हैं। हमारी उपासना की विधियों में कई अन्तर हैं कोई मूर्ति पूजते हैं तो कोई नहीं; कोई सिर्फ स्वाध्याय-ध्यान ही करते हैं, कोई पूजा में सचित्त का प्रयोग नहीं करते तो कोई ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं समझते। इस दृष्टि से हम बँटे हुए हैं। 'सामायिक' एक ऐसी प्रक्रिया है जो सभी संप्रदायों में लगभग समान है। पाठ भी उच्चारण भी लगभग सभी संघों में एक सा ही होता है। प्रविधि में यदि कुछ अंतर हैं भी तो उन्हें आपस में मिल बैठकर सुधारा जा सकता है। जैसे- स्थानकवासी, तेरापंथी मुखवस्त्रिका पहनना जरूरी बताते हैं किन्तु दिगम्बर और मूर्तिपूजक श्वेताम्बर इसे आवश्यक नहीं मानते। लेकिन सभी पक्ष समता की आराधना, आत्मचिन्तन, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि के उद्देश्य से एक हैं। मूर्तिपूजा करने वालों के यहाँ भी यह अनिवार्य नहीं है कि सामायिक मन्दिर में ही करना, कहीं भी कर सकते हैं, कोई पराधीनता नहीं है। मेरी तो मान्यता यही है कि सभी अपनी- अपनी तरह सामायिक करें किन्तु ऐसा करते हुए भी एक 'ग्लोबल सामायिक' ऐसी जरूर निर्मित करें जिस पर सभी पक्ष अपनी मुहर लगायें और पूरे विश्व के जैन उसे किसी एक निश्चित समय में एक साथ जरूर संपन्न करें। आधुनिक परिवेश में जैनत्व की रक्षा का यह एक अमूल्य योगदान होगा। भगवान महावीर के 2500 वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष पर जैन धर्म के सभी संपद्रायों उपसंप्रदायों ने मिलकर प्रतीक चिन्ह, ध्वज आदि कई चीजों में एक समानता बनाकर मिसाल कायम की थी जो आज एक अन्तर्राष्ट्रिय पहचान बन चुका है। किन्तु क्रियाओं में भी एक उदाहरण तो ऐसा बनाना चाहिए जिससे हम कह सकें कि ये धार्मिक क्रिया हमारा एक ऐसा क्रिया है जिससे सभी जन एक साथ एक समय में अवश्य संपन्न करते है और शायद 'सामायिक' पर आमसम्मति आराम से बन सकती है। उत्तर आधुनिक युग और ग्लोबल सामायिक आज जिस विश्व समाज में हम रह रहे हैं उसमें मनुष्य विकास की सारी सीमायें पार कर रहा है किन्तु उसका यह विकास जितना बाहरी है उतना आंतरिक नहीं है। आज की नयी पीढ़ी का भौतिक जगत् भले ही हमें आकर्षक और गतिमान दिखायी देता हो किन्तु उसका भाव जगत काफी क्षत-विक्षत है। यह क्या कम आश्चर्य की बात है कि फिल्म देखने के लिये तीन घन्टे और प्रतिदिन इन्टरनेट पर चेट करने के लिए घंटों का समय हम आसानी से निकाल लेते हैं किन्तु जिन मन्दिर में दर्शन करने और स्वाध्याय करने के नाम पर हम अपनी व्यस्तताओं की एक लम्बी लिस्ट बना देते हैं। आज के इस युग में अस्थिरता और उतार-चढ़ाव जितना रोज घटित होता है उतना पहले नहीं होता था। सफलता-असफलता, लाभ-हानि की स्थिति किसे कब नहीं भोगनी पड़ती? किन्तु अपनी आत्मा से जुड़े लोग हर स्थिति में समता की आराधना करके उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं किन्तु मात्र भौतिक दुनिया में जीने वाले प्रतिकूल स्थितियों को सहज नहीं कर पाते और जीवन तक समाप्त कर डालते हैं। आज उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले डॉक्टर-इंजीनियर-डठ। छात्र-छात्राएं तक थोड़ी सी प्रतिकूलता आने पर
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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