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________________ 34 अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010 इसीलिए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि "आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतेजसा सततमेव । " दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूप रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेव की पूजा एवं विद्या की लोकोत्तरता के द्वारा जिनशासन के प्रभाव को जगत् में फैलावे । है जैन श्रावक मात्र जीता नहीं बल्कि आदर्श को सामने रखकर आदशों का अनुकरण करते हुए आदर्श जीवन जीता है। आदर्श जीवन वह है जिसमें अधिकारों की अपेक्षा नहीं और कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं हो वह स्वयं संत नहीं है, किन्तु संतभाव उसमें समाया होता है। वह संत समागम के लिए सदैव लालायित रहता है। सत्संगति में चित्त को लगाता है। सत्संगति के लाभ के विषय में कहा गया है कि हंति ध्वान्तं हरयति रजः सत्तवमाविष्करोति, प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्तिं तनोति । धर्मे बुद्धिं रचयतितरां पापबुद्धिं धुनीते, पुंसां नो वा किमिह कुरुते संगतिः सज्जनानाम्॥" संत समागम के द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्त्विक वृत्ति का आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्यायवृत्ति उत्पन्न होती है, धर्म में चित्त लगता है तथा पापबुद्धि दूर होती है अतः साधुजन की संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता ? नीति भी कहती है कि संत समागम हरिभजन, तुलसी दुर्लभ दोय । सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय किसी भी राष्ट्र का कल्याण उसके निवासियों के उन्नत चारित्र से ही हो सकता है। जैन श्रावक चारित्रवान् होता है। वह हीन आचरण को पापार्जन का कारण मानकर छोड़ देता है 11 राष्ट्र की आत्मा सह-अस्तित्व की भावना में बसती है। जहाँ वेदों में- "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्" कहा गया वहीं जैन ग्रंथों में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् " अर्थात् परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है; कहकर सह-अस्तित्त्व की भावना सुनिश्चित कर दी। भगवान महावीर ने कहा कि जैन श्रावक स्थूल-हिंसा का त्यागी होगा, अहिंसाणुव्रती होगा। भगवान महावीर की दृष्टि विशाल थी अतः उन्होंने अहिंसा के दायरे में मात्र मानव को ही नहीं लिया अपितु प्राणी मात्र को लिया । द्रव्यहिंसा के साथ भावहिंसा के त्याग की बात कही। वास्तव में वे जीवमात्र के हितैषी थे। यदि जीवों का हित नहीं होगा तो राष्ट्र का भी हित कैसे होगा? वे कहते हैं
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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