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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 उस तप-बल के चिंतन से, वह आत्मानुभूति के गवाक्ष से, मूलकृति 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' के अध्यात्म अंतरिक्ष को निहारता है। इस वैशिष्ट्य के कारण हर आचार्य की कृति एक मौलिक रचना के स्वरूप में रूपायित होकर, जैनवाड्.मय के कोष में वृद्धि करता है। जिस प्रकार अमृतचन्द्र स्वामी ने 'समयसार' के ऊपर 'अध्यात्म-अमृतकलश' नाम से कुन्दकुन्ददेव के आत्मभावों को उद्घाटित कर समयसार की लौकिक और पारलौकिक संपदा का खजाना अनावृत किया, उसी तरह 'पुरुषार्थ देशना' ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के 2-2 या 3-3 पद्यों के समूह को उपशीर्षक देकर विषयवस्तु का केन्द्रीकरण कर दिया। उक्त ग्रंथ का नाम चार पदों के समुच्चय-रूप है। पुरुष, अर्थ, सिद्धि और उपाय। पुरुष का शब्दार्थ आत्मा भी है। आत्मा के अर्थ यानी प्रयोजन की सिद्धि (प्राप्ति) के उपाय को बतलाने वाला यह अभीष्ट ग्रंथ है। आगम में चार प्रकार का पुरुषार्थ कहा गया है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। एक श्रावक या जैन-गृहस्थ इन चारों पुरुषार्थों को साधता है। वह धर्मपूर्वक अर्थ या धनसंपत्ति का उपार्जन करता है। स्वदार संतोष व्रत को पालता हुआ स्वपरिणीता के साथ संतान की प्राप्ति के लिए कामेच्छा करता है-वह भी पुरुषार्थ में परिगणित है क्योंकि इससे श्रावक कुल की परंपरा प्रवर्तमान होती है। प्रमादवश यदि श्रावकोचित पथ से भटकता है तो श्रद्धा के सहारे पुनः मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर अपने अभ्यास को दुहराता रहता है। जबकि सकल चारित्रधारी मुनिराज/आचार्य, मोक्षमार्ग के पथिक होते हैं। 'पुरुषार्थ देशना' भाष्य कृति के सृजन का लक्ष्य (1) निश्चित ही 'पुरुषार्थ देशना' के अमृत-प्रवचन के सार संक्षेप हैं जो संपादित हैं। इस दिव्य देशना के पीछे न पाण्डित्य का प्रदर्शन है और न ही ज्ञान के क्षयोपशम का वैशिष्ट्य प्रगट करना है अपितु श्रावकों के संयम-मार्ग को ज्ञानालोक से प्रकाशित करना है। मार्ग में यदि अंधकार है, तो भटकने की संभावना रहती है। प्रकाश के सद्भाव में मार्ग साफ नजर आता है। सिद्धान्त में दिखने वाली शंकाओं के अवरुद्ध को दूर कर, विरोध का निरसन करने वाले अनेकान्त व स्यावाद के द्वारा वस्तु-तत्त्व का निरूपण करना ही आचार्य को अभीष्ट है। आचार्य अमृतचन्द्र ने, मंगलाचरण में अनेकान्त को इसलिए नमस्कार किया कि वह जैनागम का प्राण है। आचार्य विशुद्धसागर अनेकान्त के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यदि दृष्टि में अनेकान्त हो, वाणी में स्याद्वाद हो और आचरण में अहिंसा हो तो विश्व के विवादों का हल और शान्ति की मौजूदगी स्वयमेव हो जायेगी। श्रमण-संस्कृति के उक्त तीन सूत्र ही पुरुषार्थ सिद्धि के सशक्त साधन या उपाय हैं। जीवन में अनेकान्त की क्या व्यावहारिकता है? इसे आचार्य श्री एक जन्मान्ध के एकांगी ज्ञान का उदाहरण देते हुए समझाते हैं। वह जन्मान्ध हाथी के जिस अंग को स्पर्श कर रहा है, उसे ही संपूर्ण हाथी मान रहा है। यही अधूरा ज्ञान उसकी अज्ञानता है, जो ज्यादा घातक है। यही अधूरापन अध्यात्म की भाषा में एकान्तनय या निरपेक्ष नय कहा जाता है जो मिथ्यात्व होता है। आप्तमीमांसा में कहा है-'निरपेक्षनमो मिथ्या ।।108।।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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