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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 श्रावकों को 'पुरुषार्थ देशना' की उपयोगिता -प्राचार्य पं. निहालचंद जैन जैनदर्शन, संसार-सृजन व संचालन में किसी एक सर्वशक्ति संपन्न संचालक की सत्ता स्वीकार नहीं करता। अपितु कुछ ऐसे समवाय या तत्त्व हैं, जिनके योग से यह जगत स्वतः संचालित है। वे तत्त्व हैं-काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ और कर्म। उक्त पाँच समवायों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण-पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ-व्यक्ति को लक्ष्य तक पहुँचाता है। आत्मा का पुरुषार्थ-कर्म के बंध या क्षयोपशम का हेतु होता है। पुरुषार्थ-मानव को महामानव या आत्मा को परमात्मा बनने की दिशा में ले जाता है। पुरुषार्थहीन-साधना के मार्ग पर अवरुद्ध हो ठूठ की भाँति खड़ा रहता है। भगवान महावीर की दिव्य देशना ने पुरुषार्थ को संयम व अध्यात्म से जोड़ने के लिए कहा। आचार्य अमृतचन्द्र जैन वाड्.मय में प्रखर भास्वर के समान भासमान दसवीं शताब्दी के ऐसे महान आचार्य हैं, जिनका नाम आचार्य कुन्दकुन्द देव, उमास्वामी और समन्तभद्र के पश्चात् बड़े आदर के साथ लिया जाता है। 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' इनकी मौलिक रचना है। वस्तुतः यह श्रावकों की आचार-संहिता अथवा कहें कि श्रावकधर्म का महाग्रंथ है। ग्रंथ की पृष्ठभूमि में अनेकान्त व स्याद्वाद के आलोक में निश्चय व व्यवहार नय का कथन, कर्मों का कर्त्ता भोक्ता आत्मा, जीव का परिणमन एवं पुरुषार्थसिद्ध्युपाय का अर्थ बतलाया गया है। यह ग्रंथ पाँच भागों में विभक्त है- (1) सम्यक्त्व विवेचन (2) सम्यग्ज्ञान व्याख्यान (3) सम्यक्चारित्र व्याख्यान (4) सल्लेखना व समाधिमरण तथा (5) सकल चारित्र व्याख्यान। गहरे गोता-खोर की भाँति जैसे कोई गहरे सागर से मोती खोजकर लाता है और मोतियों की अमूल्य व अभिराम माला बनाकर आभूषण का रूप देता है, वैसे ही आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने, इष्टोपदेश भाष्य का प्रणयन कर दिया। संपूर्ण 'पुरुषार्थ देशना' का स्वाध्याय और चिंतन से जो निष्कर्ष और फलश्रुतियाँ निकलीं वे श्रावकों के लिए अत्यन्त उपादेय हैं। कारण है- कि 'पुरुषार्थ देशना' की सरस सरल भाषा और कथन-शैली प्रभावक है। अनेक कथानकों और उदाहरणों से आगम-सिद्धांत को दृढ़ आधार दिया। यह केवल पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के 225 संस्कृत-पद्यों का विस्तारीकरण ही नहीं है, अपितु 16 पूर्ववर्ती आचार्यों के 36 अध्यात्म ग्रंथों के संदर्भो से विषय की पुष्टि की है। जैसे एक कुशल अधिवक्ता, न्यायाधीश के समक्ष केस से संबन्धित नजीरें देकर अपनी बात को वैध निक जामा पहनाता है, वही काम आचार्य विशुद्धसागर जी ने इस कृति में भी अन्यान्य भाष्यकृतियों के समान प्रस्तुत किये। एक दिगम्बर संत- केवल वैदुष्य या पाण्डित्य का धनी नहीं होता, अपितु उसके साथ तप साधना की आध्यात्मिक-ऊर्जा का तेज होता है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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