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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 कषायजन्य अशान्ति और बेचैनी को दूर करने के लिए नाना प्रकार के मंगल वाक्यों की प्रतिष्ठा की है। जिनके स्मरण, मनन, चिंतन और उच्चारण से शान्ति मिलती है, मन पवित्र होता है तथा आत्म कल्याण की भावना का परिस्फुरण होता है। अहंत भगवान दिव्य औदारिक शरीर के धारी घातिया कर्म मल से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त अनेक नामों से पुकारे जाते हैं। जो पूर्ण रूप से अपने स्वरूप में स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, अष्टकर्म नष्टकर सिद्ध हुए ऐसे सिद्ध परमात्मा हैं। 12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक, 3 गुप्ति युक्त 36 मूलगुणों के धारी आचार्य परमेष्ठी हैं। जो संघ के नायक बन स्वरूपचारित्र में मगन रहते हैं और चौदह विद्या स्थान के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी हैं तथा ग्यारह अंग, चौदह पूर्व के पाठी होते हैं। जो अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और 84 लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं ऐसे साधु परमेष्ठी हैं। ऐसे पांचों परमेष्ठियों को इस णमोकार मंत्र में नमस्कार किया गया है। यह णमोकार महामंत्र अनादि है प्रत्येक कल्पकाल में होने वाले तीर्थंकरों द्वारा इसके अर्थ का तथा गणधरों द्वारा इसके शब्दों का निरूपण किया जाता है। इसीलिए इस महा मंगल रूप महामंत्र को षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में अंकित किया गया है। अतः धवला टीकाकार श्री वीरसेन आचार्य ने टीका में ग्रंथ रचना के क्रम का निरूपण करते हुए कहा है मंगल णिमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह च कत्तारं। वागरिय छप्पिपच्छा वक्खा णउ सत्थमाइरियो । अर्थात् मंगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम, कर्ता इन छह अधिकारों का व्याख्यान करने के पश्चात् शास्त्र का व्याख्यान आचार्य करते हैं। मंगल के दो भेद हैं। निबद्ध और अनिबद्ध अर्थात् पूर्व परंपरा से चले आए किसी मंगल सूत्र या श्लोक को अंकित निबद्ध मंगल है। तथा रचना के आदि में मंगल वाक्य बिना लिखें जो नमस्कार किया जाता है वह अनिबद्ध कहलाता है। (धवला ग्रंथ) श्री जिनसेनाचार्य लिखते हैं- “स्वकाव्यमुखे स्वकृतं पद्यं निवद्धम परकृतम निबद्धम्" अर्थात् स्वरचित मंगल अपने ग्रंथ में निबद्ध और अन्य रचित मंगल सूत्र को अपने ग्रंथ में लिखना अनिबद्ध कहा जाता है। इस आधार पर णमोकार मंत्र को अनिबद्ध मंगल कहा जायगा क्योंकि पुष्पदंत इसके रचयिता नहीं हैं उन्हें तो यह परंपरा से प्राप्त था। अत: उन्होंने इस मंगल वाक्य को ग्रंथ के आदि में अंकित कर दिया। इसीलिए वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका (1/49) में इसे अनिबद्ध मंगल कहा। आचार्य वादीभसिंह ने क्षत्रचूडामणि ग्रंथ में बताया-मरणोन्मुख कुत्ते को जीवन्धर स्वामी ने करुणावश णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से पापाचारी श्वान देव के रूप में उत्पन्न हुआ। अतः सिद्ध है कि मंत्र आत्म शुद्धि का बहुत बड़ा कारण है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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