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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 व्रत का स्वरूप व्रत का अर्थ पाप रहित जीवन व्यतीत करना है तथा असामाजिक और छुपकर किये जाने वाले कार्य को पाप कहते हैं। अर्थात् जो आत्मशांति का पतन कराये वह पाप है, तथा जो पाप से आत्मा को रोके अथवा मोक्ष की ओर ले जाए वह व्रत है। आचायर्य पूज्यपाद स्वामी ने व्रत की परिभाषा में कहा है- इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यम् इति व्रतम् अर्थात् यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है, ऐसा नियम करना व्रत है। इससे समाज में बैर विरोध बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों पर नियंत्रण होता है। जैनाचार्यों ने व्रत के पाँच भेद किये हैं जिनमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व्रत हैं। इन पंच व्रतों पर जैन शास्त्रों में बहुत जोर दिया गया है। पाँच व्रतों के परिपालन के लिए व्रतों के दो स्तर स्थापित किये गये हैं। प्रथम है साधु मार्ग और द्वितीय श्रावक मार्ग या गृहस्थ मार्ग। इन्हें क्रमशः साधु धर्म और श्रावक धर्म भी कहते हैं। साधु मार्ग निवृत्तिमूलक है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूपी पाँच पापों के परिपूर्ण त्याग से यह प्रारंभ होता है। श्रावक मार्ग या गृहस्थ मार्ग का निर्वाह उक्त पापों के आंशिक त्याग से होता है। इसका पालन समाज में रहने वाले मनुष्य अपनी क्षमता के अनुरूप करते हैं। गृहस्थ मार्ग त्याग और भोग के बीच संतुलित जीवन जीने की पद्धति है। साधु जीवन में जहाँ आध्यात्मिक जीवन मूल्यों के क्रमिक विकास के साथ-साथ मानवीय गुणों का संचार होता है, वही साधु धर्म व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित बनाकर पूर्ण निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। श्रावक धर्म मानव मात्र में नैतिक और धार्मिक गुणों का आरोपण कर एक श्रेष्ठ इंसान बनाता है। इस तरह साधु धर्म को व्यक्ति धर्म तथा श्रावक धर्म को समाज धर्म भी कह सकते हैं। समस्त जैनाचार, श्रावकाचार या गृहस्थाचार तथा श्रमणाचार या साध्वाचार के रूप में विभाजित है। जैनदर्शन में साधु पाप का स्वतः त्यागी होता है तथा भारतीय कानून पाप से बचाने के लिए दण्ड का विधान करता है। इसलिए भारतीय कानून में जैन साधुओं के लिए दण्ड का विधान नहीं किया गया है। परन्तु श्रावक पाप क्रियाओं को करता है तथा व्रतों में अतिचार लगाकर पाप का अर्जन भी करता है इस कारण भारतीय कानून श्रावकों को पाप से बचाने के लिए तथा व्रतों की रक्षा के लिए श्रावक का पूर्ण सहयोगी है। इसी क्रम में पाप व्रतों की तुलना भारतीय कानून की धाराओं से करने का प्रयास किया जा रहा है जिसमें सत्याणुव्रत को भारतीय कानून की धाराओं से जोड़कर श्रावक को कानून और धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का सूक्ष्म प्रयास है। सत्याणुव्रत सत्यव्रत जैनधर्म का मौलिक तत्त्व है। अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की उपासना अनिवार्य है। झूठा व्यक्ति सही अर्थों में अहिंसक आचरण कर ही नहीं सकता तथा सच्चा अहिंसक कभी असत्य आचरण नहीं कर सकता। असत्य हिंसा का जनक है। अतः जैन मुनि कभी भी असत्य वचनों का प्रयोग नहीं करते। हमेशा हित, मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करते हैं। कषायों से प्रेरित होकर, जानबूझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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