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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 87 अनंतानुबंध और प्रत्याख्यान कषाय के क्षयार्थ होंगे। मिथ्या दृष्टियों के ये नहीं होते हैं। दस-विध-धम्मो आद-सुद्धि कारको पावणिवारगो मोह-खोह-परिणाम-विधादगो मिच्छत्त-भाव-णासगो कोह-माया-माय-लोह-हासादि-परिसम्भगो कसया-णोकसाय-पखंतोग सि। - दस विध धर्म आत्मशुद्धि कारक, पापनिवारक, मोह क्षोभ परिणाम विघातक, मिथ्यात्वभाव नाशक, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य आदि परिशामक एवं कषाय-नो कषाय को शान्त करने वाले हैं। खमाधम्मो खमा-णिम्मलु भावउ, पिऊ मित्तउ सव्वउ। परोप्पेपरु जीवउ, पकोवप्परु संतउ। - क्षमा आत्मा का निर्मल भाव है, प्रिअ भी सभी तरह की मित्रता का कारण भी, परस्पर जीवन जीने की कला भे तथा यह है प्रकोप को शान्त करने का उत्कृष्ट साध का कालुस्सुणवपत्ती खम्मो कालुस्सो अत्थि अक्कोसो कोहो को वो रोवो रोसो आदी। तस्स अणुवपत्त णासो समणं सहणं। - कालुष्य का अर्थ है आक्रोश, क्रोध, कोप, रोप, रोष आदि। उसकी अनुत्पत्ति, नाश, शमन या सहन क्षमा है। कोवाभावो खमाधम्मो-तस्स णिमित्त अप्पणो। सहणपरिणामे त्ति जाएज्ज णिम्मतो जणो॥ - क्रोध का अभाव होना क्षमाधर्म है। उसके निमित्त से लोगों का आत्मा सहनशील एवं निर्मल होता है। खमणं सहणं भावं दुण्णिवार-पताड णं। आलुस्स-अंत-वावारो पत्तेज्ज णंद-भावणं॥ - जो दुर्निवारक प्रताडन रूप कालुष्य व्यापार है, उसका अंत जब होता है, तब क्षमण सहन भाव एवं आत्मानंद की भावना को प्राप्त होता है। कालस्स-कालिमा-कंदो कोहावेग-पकोव गो। उवसग्ग-रोछ-रण्णग्गी पसमदेव खमाजणा। -- कालुष्य रूपी कालिमा का कंद क्रोध का आवेग प्रकोप भाव, उपसर्ग, रौद्र रूपी अरण्य की अग्नि क्षमा के उत्पन्न होने पर समाप्त होती है। कोहंतो पसमोभावो खमो पकोव-णिग्गहो। आद-सहाव-सुद्धो त्ति णाददेणंत-भावणा।। - क्रोधान्त, प्रशमभाव, प्रदोष निग्रह आत्म स्वभाव शुद्धभाव एवं अनंत की भावना
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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