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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 न्यायतीर्थ हैं। यह चम्पू ग्रंथ शास्त्री जी की प्रतिभा का उत्कृष्ट निदर्शन है। इसमें चौबीसवें जैन तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी के पांचों कल्याणकों को काव्यात्मक भाषा में आठ स्तवकों में चित्रित किया है। इस चम्पू में उनके जन्म, शैशव, गृहत्याग, ज्ञानप्राप्ति, उपदेश आदि का सम्यक् निरूपण है। कैवल्य-प्राप्ति का महत्त्व भी प्रतिपादित है। इस चम्पू काव्य में कवि की यह अनूठी विशेषता निदर्शित है कि उन्होंने बुराई में भी अच्छाई को देखा है। अन्य कवियों के समान उन्होंने दुर्जनो की निंदा नहीं की है, बल्कि उन्हें कवियों की प्रसिद्धि का हेतु माना है। कांच की मणि का दृष्टान्त देकर उन्होंने लिखा है कि जैसे कांच के सद्भाव में ही मणि की प्रतिष्ठा होती है, वैसे ही दुर्जनों का सद्भाव कवि की प्रसिद्धि के लिए अपेक्षित है कवि-प्रकाशे खलु एव हेतुर्यतिश्च तस्मिन् सति तत्प्रकर्षः। काचं बिना नैव कदापि कुत्र मणेः प्रतिष्ठा भवतीह सम्यक्॥ 'वर्धमान चम्पू' प्राञ्जल एवं सुपरिष्कृत काव्य शैली में विरचित आधुनिक संस्कृत साहित्य का उत्कृष्ट निदर्शन है। वैदर्भी रीति-प्रधान यह काव्य प्रसाद गुण से आकण्ठ पूरित है। इसके पदों में लालित्य है, भाषा बोधगम्य, सहज और प्रवाहमयी है। सन्धि और समासों के प्रयोग से भाषा में दुरूहता उत्पन्न नहीं हुई है। अंगी रस के रूप में शांतरस की प्रतिष्ठा हुई है। मार्मिक स्थलों पर उपयुक्त अन्य रसों की अभिव्यक्ति सहज रूप से प्रस्फुटित हुई है। कवि का मुख्य लक्ष्य प्राचीन कथा का सहज, सरल और सहित्यिक भाषा में वर्णन करना है। इसमें भारत के प्रसिद्ध नगरों- वैशाली, हस्तिनापुर आदि की भौगोलिक स्थिति का आकलन भी हुआ है। समाज में यह धारणा सामान्यतः दृढमूल है कि- वार्धक्य काल में कवि-गण मतिभ्रम से ग्रस्त हो जाते हैं किन्तु वृद्धावस्था में प्रस्तुत ग्रंथ 'वर्धमान चम्पू' के रचनाकर पं. मूलचन्द शास्त्री की बुद्धि-विलक्षणता एवं विचझणता उसका सुखद अपवाद है। ___ वर्धमान चम्पू' के रचयिता का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जिला के मालथोन नगर में हुआ था में वि. सं. 1960 अगहन बदी अष्टमी को हुआ है और उनकी शिक्षा-दीक्षा सागर (म.प्र.) तथा शिक्षा सागर के श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय में हुई। 'वर्धमान चम्पू' के अन्त में काव्य प्रणेता ने अपना छन्दोबद्ध जीवन परिचय भी प्रस्तुत किया है: सागर- मण्डलाधीना, मालथोनेति संज्ञकः। ग्रामो जनधनाकीर्णः सोऽस्ति मे जन्मभूरिति॥ 'सल्लो' माता पिता मे श्री-सटोलेलाल नामकः। जिनधर्मानुरागी सः, परवार-कुलोद्भवः॥ इस रचनाकार की अन्य प्रकाशित संस्कृत रचनाओं में- लोकाशाह-महाकाव्यम्, वचनदूतम् (दो भागों में प्रकाशित), अभिनवस्तोत्रम् आदि उल्लेखनीय है। वे संस्कृत की सिद्धहस्त टीकाकार भी थे। आ. हरिभद्रसूरि कृत 'षोडशप्रकरण' की 15000 श्लोक प्रमाण तथा 'विजयहर्षसूरि प्रबन्ध' की 450 श्लोक प्रमाण टीकाएँ उल्लेखनीय हैं। 'आप्तमीमांसा' की हिन्दी टीका पर उन्हें 'न्याय वाचस्पति' की उपाधि से
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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