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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 किया जाता है उसे 'चम्पू' कहते हैं। श्री हरिदास भट्टाचार्य ने चम्पू शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है- चमत्कृत्य पुनाति सह्रदयान् विस्मयीकृत्य प्रसादयति इति चम्पूः । ' इसके अनुसार चम्पू में शब्द- चमत्कार और अर्थप्रसाद गुण होना चाहिए। चम्पू में वर्णनात्मक अंश के लिए गद्य का प्रयोग होता है और अर्थगौरव वाले अंशों के लिए पद्य का प्रयोग किया जाता है। 75 'चम्पू' का स्वरूप सर्वप्रथम दण्डी (लगभग 600-650ई.) ने अपने काव्यादर्श में चम्पू की परिभाषा 'गद्य-पद्यमयी काचित् चम्पूरित्यभिधीयते” की है अर्थात् ऐसी कोई विशेष रचना जो गद्य और पद्यमय हो चम्पू कहलाती है। किन्तु जो चम्पू रचनाएं उपलब्ध हैं वे दशवीं शती से पूर्व की कोई नहीं है इस कोटि की उपलब्ध रचनाओं में सर्वप्रथम रचना त्रिविक्रम भट्ट का नलचम्पू (915 ई.) और दूसरी रचना आचार्य सोमदेव सूरि का यशस्तिकलकचम्पू है। इस श्रृंखला में संस्कृत के जैन कवियों ने चम्पू काव्य विधा का भी प्रणयन किया है। चम्पू काव्य की मनोरमता पर प्रकाश डालते हुए हरिश्चन्द्र ने जीवन्धर चम्पू में लिखा हैगद्यावली पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहतो प्रमोदम् । हर्ष - प्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्राक्बाल्यतारुण्यवतीव कन्या । यशस्तिलक चम्पू आचार्य सोमदेव सूरि के यशस्तिलक चम्पू की रचना 959 ई. में हुई थी। आचार्य सोमदेव सूरि चालुक्यराज अरिकेशरिन् (द्वितीय) के बड़े पुत्र द्वारा संरक्षित कवि थे। यह राष्ट्रकूट के राजा कृष्णराजदेव के समकालिक थे। इस चम्पू का मूल उत्स आचार्य गुणभ्रद प्रणीत जैन उत्तर पुरण हैं। इसमें अवन्ती के राजा यशोधर का चरित वर्णित है। इस महाग्रंथ में आठ समुच्छ्वास हैं। प्रथम पांच समुच्छवासों में कथा अविच्छिन्न गति से आगे बढ़ती है। अन्त के तीन समुच्छ्वासों में सम्यग्दर्शन तथा उपासकाध्ययनांग का विस्तृत और समयानुरूप वर्णन है तृतीय समुच्छ्वास में राजनीति की विशद विवेचना है। इस कृति के द्वारा सोमदेव के गहन अध्ययन, प्रगाढ़ पाण्डित्य, भाषा पर स्वच्छन्द प्रभुत्व एवं काव्य क्षेत्र में उनकी नये नये प्रयोगों की अभिरुचि का परिचय मिलता है। सोमदेव ने अनेक कवियों के नामोल्लेख सहित उनकी मुक्तक कृतियों को इस चम्पू काव्य में उद्धृत किया है। इस चम्पू काव्य पर श्रुतसागर सूरि की सुन्दर व्याख्या है। इस चम्पू में आचार्य ने कथा भाग की रक्षा करते हुए कितना प्रमेय भर दियाहै ? यह देखते ही बनता है। इसके गद्य कादम्बरी से भी बढ़-चढ़कर है, कल्पना का उत्कर्ष अनुपम है, कथा का सौन्दर्य ग्रंथ केप्रति आकर्षण उत्पन्न करता है । सोमदेव ने प्रारंभ में ही लिखा है कि- जिस प्रकार नीरस तृण खाने वाली गाय से सरस दूध की धारा प्रवाहित होती है। उसी प्रकार जीवन पर्यन्त जैसे नीरस विषय में अवगाहन करने वाले मुझसे यह काव्य-सुधा की धारा बह रही है। इस ग्रंथरूपी महासागर में अवगाहन करने वाले विद्वान् ही समझ सकते हैं कि आचार्य सोमदेव के हृदय में कितना अगाध वैदुष्य भरा है। उन्होंने एक
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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