SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन चम्पू साहित्य और उसका वैशिष्ट्य ___-प्रो. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' गद्य-पद्य मिश्रित साहित्य को 'चम्पू' संज्ञा प्रदान की जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण, पंचतंत्र, हितोपदेश, और पालि भाषा की जातक कथाओं में इस शैली का प्रयोग किया गया है। जैन परम्परा के संस्कृत कवियों ने अनेक चम्पू काव्यों का सृजन किया है। प्रस्तुत आलेख में यशस्तिलक चम्पू, जीवन्धर चम्पू, भरतेश्वराभ्युदय चम्पू, पुरुदेव चम्पू, दयोदय चम्पू, वर्द्धमान चम्पू एवं जैनाचार्य विजय चम्पू शीर्षक 7 चम्पू काव्यों की कथावस्तु एवं वैशिष्ट्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत रचना शैलियाँ : संस्कृत रचनाओं की अनेक शैलियाँ और विधाएँ है। जैसे काव्य, नाटक, चरित्र, पुराण, कथा, आख्यायिका, स्तोत्र, गीत तथा मुक्तक आदि। इन सबका तीन वर्गों में विभाजन किया जाता है- गद्य, पद्य, और मिश्री मिश्र रचना-शैली प्राचीनतम ब्राह्मणों की शुन:शेप कथा गद्य में रचित होने पर भी उसमें एक सौ से अधिक पद्यात्मक गाथाएँ आयी हैं। इस शैली का प्रयोग पालि भाषा की जातक कथाओं में और पश्चात् पंचतंत्र, हितोपदेश जैसी रचनाओं में बहुलता से हुआ। नाटक में भी गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ। किन्तु यहाँ गद्य और पद्य का अपना- अपना विशिष्ट स्थान बन गया। जब पद्य व गद्य रचनाओं में कलात्मकता की मात्रा बढ़ी, तब उनके क्षेत्रों का बंटवारा नियत न रह सका। अश्वघोष और कालिदास से प्रारंभ होकर भारवि, माघ और श्रीहर्ष तक महाकाव्य शैली ने अर्थगाम्भीर्य के साथ छन्द, रस, भाव, अलंकार आदि में अति कृत्रिम रूप से विकास किया। गद्य रचना भी पीछे न रही और सुबन्धु तथा बाण ने उसे भी इतना पुष्ट और कलात्मक बना दिया कि उसे भी महाकाव्य के समकक्ष स्थान प्राप्त हो गया। उक्त प्रसिद्ध कृतियों के रचयिताओं का कौशल दो में से किसी एक ही क्षेत्र में पाया जाता है- पद्य या गद्य। ऐसी प्रतिभाओं का भी उदित होना भी स्वाभाविक था जो एक ही कृति में अपने गद्य और पद्य दोनों प्रकार के रचना कौशल की अभिव्यक्ति करना चाहें। ऐसी रचनाएँ 'चम्पू' के रूप में सम्मुख आयीं। चम्पू शब्द व्युत्पत्ति संस्कृत व्याकरण के अनुसार चम्पू शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- यह शब्द परादिगण की गत्यर्थक चपि (चम्पु) धातु से औणादिक उन प्रत्यय करने पर और ऊड्. ओदश करने पर बनता है। चम्पयति अर्थात् सहैव गमयति प्रयोजयति गद्यपद्ये इति चम्पूः, अर्थात् जिस रचना में गद्य और पद्य का समान भाव से तथासहयोगपूर्वक प्रयोग
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy