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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 को जो अमूर्तिक कहा गया, वह जीव स्वभाव का कथन तो है, साथ ही इस कथन से चार्वाकों के आत्मा विषयक स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादिरूप मूर्तिकत्व का निराकरण होता है।१४ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अकलंकदेव ने स्याद्वाद सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में आत्मा को स्वचतुष्टय की अपेक्षा से विधि रूप स्वीकार किया है और परचतुष्टय की अपेक्षा से निषेधरूप स्वीकार किया है। इसी प्रकार स्वचतुष्टय की अपेक्षा आत्मा मूर्तिक है और परचतुष्टय की अपेक्षा से आत्मा अमूर्तिक भी है और इसी बात की पुष्टि विविध उदाहरणों के माध्यम से आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज ने अपने स्वरूप संबोधन परिशीलन में की है। संदर्भ स्वरूप सम्बोधन पंचविंशति, कारिका 24 स्वरूप सम्बोधन पंचविंशति, कारिका 8 स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 82 स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 82 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 11. आप्तमीमांसा, कारिका 15 12. स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 85 13. स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 86 14. स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 86 69 आप्तमीमांसा, कारिका 108 स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 82 स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 84 स्वरूप सम्बोधन परिशीलन, पृष्ठ 84 आप्तमीमांसा, कारिका 9, 10, 11 आचार्य एवं अध्यक्ष जैन-बौद्धदर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, आवास निर्वाण भवन बी-२ / २४९, लेन नं. १४, रवीन्द्रपुरी, वाराणसी - २२१००५
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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