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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात्। सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम्॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्राग्भावस्य निह्नवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत्।। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे। अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा। अर्थात् हे भगवन्! यदि पदार्थों के अस्तित्व को सर्वथा एकान्त रूप से स्वीकार किया जाये और असत् रूप कोई पदार्थ नहीं है ऐसा सर्वथा एकान्त रूप से स्वीकार किया जाये तो इससे प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव रूप वस्तु-धर्मों का लोप ठहरता है और इन वस्तु-धर्मों का अलोप करने से वस्तु-तत्त्व सर्वथा अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और अस्वरूप हो जाता है, परन्तु यह सब आपके लिये इष्ट नहीं है। क्योंकि प्रागभाव का लोप करने से कार्यरूप द्रव्य अनादि हो जायेगा। प्रध्वंसाभाव का लोप करने से द्रव्य अनन्त रूप हो जायेगा। अन्योन्याभाव का लोप करने से एकत्व अभेद रूप सर्वात्मक हो जायेगा और यदि अत्यन्ताभाव का लोप करते हैं तो “यह चेतन, यह अचेतन है।" इत्यादि रूप से उस एक तत्त्व का सर्वथा भेदरूप से कोई कथन नहीं बन सकेगा। ऐसी स्थिति में आचार्य विशुद्धसागर जी महराज लिखते हैं- ज्ञानियो! इसलिये ध्यान दो- आत्मा सत् रूप है, वह मात्र सत्-चित् की अपेक्षा से है, न कि जड़ की अपेक्षा। चैतन्य धर्म की दृष्टि से ही आत्मा सद्प है न कि अचेतन की अपेक्षा। अचेतन की अपेक्षा से वह असद् रूप ही है। अतः स्वचतुष्टय से द्रव्य सद्प है, परचतुष्टय की अपेक्षा असद् रूप है।१० __अपनी इसी बात की पुष्टि के लिये आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज ने आचार्य समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा से जो कारिका उद्धृत की है, वह इस प्रकार है सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते॥ अर्थात् स्वरूपादिचतुष्टय की अपेक्षा से सब पदार्थों को सत् कौन नहीं मानेगा? और पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा से सब पदार्थों को असत् कौन नहीं मानेगा? यदि ऐसा कोई नहीं मानता है तो वस्तु की सही व्यवस्था नहीं बनेगी। कहने का तात्पर्य यह है कि षड्द्रव्यों में जीव अथवा आत्मा भी एक द्रव्य है, जो स्वचतुष्टय की अपेक्षा विधि रूप है और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध रूप है। __इसी प्रकार आत्मा मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी। इस संदर्भ में आचार्यश्री विशुद्धसागर जी महाराज स्पष्ट लिखते हे। कि- स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण निश्चयनय से आत्मा में नहीं पाये जाते, इसलिये आत्मा अमूर्तिक स्वभावी है, परन्तु बन्ध की अपेक्षा से, व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा मूर्तिक भी है।१२। आचार्यश्री अपने इस कथन के अर्थ का उद्घाटन करते हुये आगे लिखा है कि- जीव
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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