SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैदिक आचार और जैन आचार -डॉ. जयकुमार जैन आचार शब्द की व्युत्पत्ति ___ आचार शब्द 'आ' उपसर्ग पूर्वक 'चर्' धातु से 'धञ्' प्रत्यय का निष्पन्न रूप है। कोश के अनुसार आचरण, व्यवहार, चालचलन कर्तव्य आदि आचार शब्द के अर्थ हैं। 'आचर्यते यः स आचारः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रत्येक की जाने वाली क्रिया को आचार कहा जा सकता है किन्तु शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार मानव के व्यवहार की उत्कृष्टता का नाम आचार है। प्राणी मात्र में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन की समानता होने पर भी जो तत्त्व मानव को अन्य प्राणियों से उत्कृष्ट सिद्ध करता है, उसका नाम आचार है। आचार शब्द में प्रयुक्त 'चर्' धातु व्याकरण में दो अर्थों में प्रयुक्त होती है- गति और भक्षण। इन दोनों अर्थों में जो गति अर्थ है उसके गमन, ज्ञान और प्राप्ति ये तीन अर्थ होते हैं। फलतः आचार का तात्त्विक अर्थ हुआ कि जो खाने के लिए गति करता है वह पशु है तथा जो ज्ञान एवं मुक्ति प्राप्ति के निमित्त भक्षण करता है, वह मनुष्य है। वेदों में 'चर्' धातु का आचार के संबन्ध में प्रयोग करते हुए कहा गया है करणीय का विधान और अकरणीय कर्म का निषेध आचार का विषय है। यथा 'नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्यश्रुत्यं चरामसि। न तो हम हिंसा करते है, न फूट डालते है; हम तो मंत्र के अनुसार आचरण करते हैं। __ "स्वस्ति पन्थानमनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताध्नता जानता सं गमेमहि॥ हम सूर्य और चन्द्रमा के समान कल्याण के पथ का अनुसरण करें, बार-बार दानी, अहिंसक और ज्ञानी के साथ संगति करें मनुस्मृति में आचार शब्द को सदाचार का द्योतक मानते हुए कहा गया है कि जिस देश में जो आचार परंपरागत है, उनका वह आचार सदाचार कहलाता है 'तस्मिन् देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः। वर्णनां वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥ जैन परंपरा में भी आचार को सदाचार के अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया है तथा आचार एवं विचार को अन्योन्याश्रित मानकर आचार के मूल अहिंसा और विचार के मूल में अनेकान्त को रखा गया है। अन्य भारतीय परंपराओं की तरह जैन परंपरा में भी आचार को धर्म तथा विचार को दर्शन कहा गया है और दोनों को परस्पर पूरक मानकर दर्शन रहित धर्म (आचरण) को अन्धा तथा आचार रहित विचार को पंगु कहा गया है।'
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy