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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 51 उपायों पर दृष्टिपात करने हुये सोमदेव सूरि लिखते हैं कि घर के सब काम देखभालकर करना और आसन, शय्या, मार्ग धान्य और जो भी अन्य वस्तुएं है। उनका यत्नाचारपूर्वक उपयोग करने से अनावश्यक हिंसा से बचा जा सकता है। अहिंसा की रक्षार्थ गृहस्थ को अपने खान-पान में शुद्धि रखना आवश्यक है। इसी संदर्भ में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि गृहस्थ को अनावश्यक हिंसा से बचने के लिये मद्य, मांस और मधु के साथ बड़, पीपल, पाकर, ऊमर और कठूमर इन फलों का भी त्याग करना चाहिये। क्योंकि इन वस्तुओं में अतीव हिंसा होती है। पं. आशाधर जी के अनुसार जीव हिंसा और जलोदर आदि रोगों की प्रचुरता होने से मद्य, मांस, आदि की तरह रात्रिभोजन भी छोड़ना चाहिए और वस्त्र से छाने बिना जल का उपयोग नहीं करना चाहिए।" उपसंहार__ अहिंसा धर्म मानव के साथ-साथ जीवमात्र के प्रति करुणा, दया, उदारता एवं परोपकारिता का उद्घोष करता है और मानवता का प्रस्फुटन कर जीवन को सही ढंग से जीना सिखाता है। जैनधर्म में सामाजिक संतुलन को प्रतिष्ठापित करने हेतु श्रावकाचार का निरूपण किया गया जो गृहस्थ जीवन की मानवीय आचार संहिता है। अहिंसा मानवीय आचार संहिता की आधारशिला है। जैनधर्म में अहिंसा धर्म का उल्लेख श्रमण (साधु) और श्रावक (गृहस्थ) दोनों की अपेक्षा से पृथक्- पृथक् किया गया है। जैन साधु अहिंसा का सर्वदेशपालन करते हैं। अत: किसी भी प्रकार की हिंसा में संलग्न नहीं होते। जबकि गृहस्थ अनिवार्य हिंसा को करते हुए भी उससे निवृत्त होने के प्रति सतत प्रयत्नशील रहता है। यशस्तिलक चम्पू के अनुसार गृहस्थ उन पर ही शस्त्र प्रहार करते हैं जो शस्त्र लेकर युद्ध में मुकाबला करता है। दीन, दुर्बल एवं सद्भावना वाले व्यक्तियों पर शस्त्र प्रहार नहीं करता। श्रावक धर्म प्रदीप के अनुसार जैसे रोगी कड़वी औषधि पीना नहीं चाहता पर रोग से बचाव के लिये उसे पीनी पड़ती है, वैसे ही गृहस्थ हिंसा से बचना चाहता है पर वह पदस्थयोग्य निर्वाह के लिए उससे बच नहीं पाता। लेकिन यथाशक्ति सोच समझकर और क्रियाओं का सम्यक् रूप से करते हुए गृहस्थ जीवन में अहिंसा का पालन किया जा सकता संदर्भ1. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः।। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, कारिका-44 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-332 3. ज्ञानार्णव, प्रकरण-8, श्लोक-7 4. वही, श्लोक-30 जैनशासन से उद्धृत, पृष्ठ 163 5. हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता, पृष्ठ 613 6. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। तत्त्वार्थसूत्र, अ0-7, सूत्र-13
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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