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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 ओर आसक्ति के कृश करने के लिये प्रयोजनभूत इन्द्रियों के विषयों की संख्या को सीमित करने को भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते हैं जो पांच इन्द्रियों के विषयभूत भोजनवस्त्र आदि पदार्थ एक बार भोगने के बाद छोड़ दिये जाते हैं भोग कहलाते हैं और जो एक बार भोग करके भी दोबारा भोगने योग्य होते हैं, वह उपभोग कहलाते हैं अर्थात् भोजन आदि पदार्थ भोग है और वस्त्र आदि उपभोग है। पंडित मेधावी जी द्वारा रचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा गया है कि इतने काल-पर्यन्त इतने भोग और उपभोग मेरे द्वारा सेवनीय है इस प्रकार नियम करके अधिक की इच्छा नहीं करने वाले पुरुष को भोगोपभोगपरिमाण व्रत होता है। जो पदार्थ एक ही बार भोग करने में आता है वह भोग कहलाता है और जो बार-बार भोग किया जाता है उसे उपभोग कहते हैं। भोग और उपभोग के प्रमाण करने को जिन भगवान् भोगोपभोगपरिमाण नामक गुणव्रत कहते हैं ऐसा जानना चाहिये। भोगापभोगपरिमाणव्रत के अतिचार विषयरूपी विष की उपेक्षा नही करना अर्थात् आदर रखना, पूर्वकाल में भोगे हुए विषयों का स्मरण रखना वर्तमान के विषय भोगने में अतिशय लालसा रखना, भविष्य में विषय प्राप्ति की अतिशय तृष्णा रखना और विषय नहीं भोगते हुए भी विषय भोगता हूँ ऐसा अनुभव करना, ये पाँच भोगोपभोग परिमाण नामक व्रत के अतिचार है। उपसंहार श्रावकाचार विषयक संस्कृत साहित्य के अनुशीलन और अनुपालन से संस्कृत साहित्य का विशाल भण्डार और अधिक समृद्ध होगा तथा समाज नैतिक आचरण के द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करेगा। संदर्भ 1. सागारधर्मामृत 1/15 की स्वोपज्ञ टीका 2. श्रावकप्रज्ञप्ति गाथा 3. अभिधान राजेन्द्र कोश में 'सावय' शब्द अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः। सकाशोत्साधूनामा गारिणां च समाचारी श्रणोतीति श्रावकः।।(श्रावकधर्म प्र.गा.2) 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः इदं कर्तव्यमिदं न कर्तव्यमिति वा- सर्वार्थसिद्धि, 7/1 6. संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः। निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्ति शुभकर्मणिः।। सागारधर्मामृत, 2/80 'एभिश्च दिग्व्रतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी व्रती भवति।- 'अणुव्रतोऽगारी' सूत्र का तत्त्वार्थधिगम भाष्य 8. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 67 9. दिग्देशानदण्डनां विरतिस्त्रितयाश्रम्। गुणव्रतत्रयं सदिभः सागारयतिषु स्मृतम्।। उपासकाध्यन, 7/414 10. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 68 11. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, 17/5 12. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 13. पीडा पापोपदेशाद्यैदेहाद्यर्थाद्विनाऽड्.िगनाम्।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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