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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 कारणों से होता है वह कभी पाप आर्त एवं रौद्र ध्यान के कारण होता है, असावधानीवश आचरण के कारण होता है, कभी जीवहिंसा के कारण बनने वाली सामग्री को प्रदान करने से होता है तथा कभी वह पाप कामभोगवर्धक कथाओं आदि के सुनने से होता है। इसी आधार पर अनर्थदण्ड के पांच भेद माने गये हैं- पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या। अनर्थदण्ड़ों की संख्या में कहीं-कहीं अन्तर भी देखने को मिलता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में उक्त पांच अनर्थदण्डों में द्यूतक्रीड़ा को जोड़कर छः अनर्थदण्डों का वर्णन किया है। जबकि श्वेताम्बर परंपरा दुःश्रुति को पृथक् अनर्थदण्ड के रूप में उल्लिखित न करके इसका अन्तर्भाव अपध्यान (आर्त्त-रौद्र ध्यान) में करती प्रतीत होती है। १. पापोपदेश बिना किसी प्रयोजन दूसरों को पाप का उपदेश देना अर्थात् ऐसे व्यापार की सलाह देना जिससे प्राणियों को कष्ट पहुंचे अथवा प्रोत्साहन मिले पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने तिर्यग्वाणिज्या, क्लेश वाणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदि की कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड माना गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि आरंभ कार्यों का जो उपदेश दिया जाता है तथा स्त्री पुरुष के समागम आदि का उपदेश देना पापोपदेश नामक अनर्थदण्डवत होता है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि निष्प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के साधन विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, कृषि, व्यवसाय और शिल्प आदि नाना प्रकार के कार्यों एवं उपायों का उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड कहलाता है। सागारधर्मामृत में पण्डित प्रवर आशाधर ने उन समस्त वचनों को पापोपदेश अनर्थदण्ड कहा है, जो हिंसा, झूठ आदि तथा खेती, व्यापार आदि से संबन्ध रखते हों उनका कहना है कि जो इन कार्यों से आजीविका चलाने वाले व्याध, ठग, चोर, कृषक, भील आदि है, उन्हें पापोपदेश नहीं देना चाहिये और न ही गोष्ठी में इस प्रकार की वार्तालाप का प्रसंग लाना चाहिये। उन्होंने लिखा है पापोपदेश यद्वाक्यं हिंसाकृष्यादिसंश्रयम्। तज्जीविन्यो न तं तद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत्॥२४ चामुण्डराय के अनुसार गाय, भैंस आदि पशुओं को इस देश से ले जाकर दूसरे देश में बेचने से अथवा किसी देश से लाकर यहां बेचने से बहुत धन का लाभ होगा ऐसा उपदेश निर्यग्वाणिज्या पापोपदेश है। इसी प्रकार अमुक देश में दासी-दास आसानी से मिल जाते हैं उन्हें वहां से खरीदकर अमुक देश में बेचने से पर्याप्त अर्थार्जन होगा ऐसा उपदेश देना क्लेशवाणिज्या पापोपदेश कहलाता है। शिकारियों से यह कहना कि हिरण, सुअर या पक्षी आदि अमुक देश में बहुत होते हैं, हिंसोपदेश या वधकोपदेश, पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड कहलाता है। खेती आदि करने वालों को यह बताना कि पृथिवी, जल, अग्नि, पवन एवं वनस्पति आदि का संग्रह इन-इन उपायों से करना चाहिये, आरंभकोपदेश अनर्थदण्ड है। चारित्रसार में इन चार को चार प्रकार का अनर्थदण्ड कहा गया है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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