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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 १. दिग्व्रत आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है कि दसों दिशाओं की मर्यादा करके सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिये 'मैं इस मर्यादा से बाहर नहीं जाऊँगा' मरण-पर्यन्त के लिये यह प्रतिज्ञा करना दिग्व्रत है। आचार्य चामुण्डराय ने चारित्रसार में लिखा है पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व (ऊपर), अधो (नीचे), ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य ये दस दिशाएं कहलाती है। पर्वत, नदी, आदि प्रसिद्ध चिन्हों के द्वारा अथवा योजनादि के द्वारा उन दशों दिशाओं का परिमाण कर लेना और यह नियम लेना कि ये सब दिशाएं जो न हटाये जा सकें ऐसे छोटे-छोटे जीवों से भरी हुई है। इसीलिये इस किये हुए परिमाण के बाहर मैं नहीं जाऊँगा। परिमाण के बाहर आने जाने का त्याग करना दिग्विरित है। सकलकीर्ति के शब्दों में जो बुद्धिजीवी समस्त दिशाओं की मर्यादा नियत करके कभी भी उससे बाहर नहीं जाता है वह दिग्विरित व्रत होता है।" दिग्व्रत के अतिचार ऊर्ध्वभागव्यतिक्रम, अधोभागव्यतिक्रम, तिर्यग्भाग व्यतिक्रम, क्षेत्रबुद्धि, और सीमा की विस्मृति ये पांच दिग्व्रत के अतिचार है। दिग्व्रत के पांच अतिचार भी सभी आचार्यों ने समान रूप से वर्णित किये हैं। २. अनर्थदण्डव्रत अनर्थदण्डव्रत अर्थात् निष्प्रयोजन पाप के त्याग का नाम अनर्थदण्डव्रत है। आचार्य पूज्यपाद ने उपकार न होने पर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है उसे अनर्थदण्ड कहा है। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने कहा है कि अपने और अपने संबन्धियों के मन, वचन एवं काय संबन्धी प्रयोजन के बिना पापोपदेश आदि के द्वारा प्राणियों को पीड़ा देना अनर्थदण्ड है और उसका त्याग अनर्थदण्डव्रत माना है। आचार्य समन्तभद्र ने दिशाओं की मर्यादा के अन्दर अन्दर निष्प्रयोजन पाप कारणों से विरक्त होने को अनर्थदण्डव्रत माना है।' चारित्रसार में भी निष्प्रयोजन पापदान के हेतु को अनर्थदण्ड कहा गया है। जो पुरुष दिग्व्रत का पालन करता हुआ भी बिना किसी कारण के लगने वाले पापों का त्याग करता है वह अनर्थदण्डव्रत होता है। उमास्वामी श्रावकाचार में उमास्वामी ने स्पष्टतया प्रतिपादित किया है कि पापोपदेशादि अनर्थों का निरन्तर त्याग करने को मुनीश्वरों ने अनर्थदण्ड कहा है।" अन्य श्रावकाचार विषयक चरणानुयोग के ग्रंथों ने भी कुछ शब्दभेद के साथ अनर्थदण्डव्रत का लगभग यही स्वरूप कहा है। संसारी प्राणी का सर्वथा निष्पाप या निरपराध हो पाना संभव नहीं है। अपने स्वार्थ लोभ लालसा आदि की पूर्ति के लिये अथवा अपने संतोष के लिये यह प्रतिक्षण पापपूर्ण कार्यों को करता रहता है। यद्यपि राजकीय कानूनों के अधीन वह इन कार्यों के कारण अपराधी नहीं माना जाता है, तथापि धार्मिक दृष्टि से वह कदाचार का दोषी है। अनर्थदण्ड के भेद अनर्थदण्डवत पांच प्रकार का माना गया है क्योंकि अनर्थदण्ड या निष्प्रयोजन पाप पांच
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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