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25. अकलंक, आ०मी० भाष्य 106 न्यावि0 229
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
58. स०सि० 133
59. वही, 1.33
60. वही, 1.33
61. वही, 1.6
62. वही, 5.39, 2.6, 109 आदि
63. आप्तमीमांसा 107
64. धवला, 1.1.1,67 सन्मतिप्रकरण, 3.47 आदि
65. त०वा० 1.33
- एसोसियेट प्रोफेसर, संस्कृत २- ए- ७८, नेहरू नगर, गाजियाबाद (उ. प्र. )
अनेकान्त-महिमा
'अनंत धर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम ॥
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वा ण णिब्बडड़। तरस भुवनेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायरस ।।'
अर्थात् जिसके बिना लोक का व्यवहार सर्वथा ही नहीं बन सकता, उस भुवन के गुरु असाधारण, अनेकान्तवाद को नमस्कार हो ।