SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 श्रुत प्रमाण नय पूज्यपाद देवनन्दि ने सर्वार्थसिद्धि में प्रतिपत्ति भेद से भी प्रमाण भेदों का निरूपण कर उसमें नय का स्थान निर्धारित किया है। उनकी दृष्टि में प्रमाण दो प्रकार का है- स्वार्थ और परार्थ। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान स्वार्थ प्रमाण है। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। ज्ञानात्मकश्रुत प्रमाण को स्वार्थप्रमाण और वचनात्मक श्रुतप्रमाण को परार्थप्रमाण कहते हैं। परार्थप्रतिपत्ति का एकमात्र साधन वचन होने से मति आदि चारों ज्ञान वचनात्मक नहीं है। श्रुतज्ञान द्वारा स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रतिपत्तियां होती हैं। ज्ञाता व वक्ता का वचनात्मक व्यवहार उपचार से परार्थ श्रुतप्रमाण है। श्रोता को जो वक्ता के शब्दों से बोध होता है, वह वास्तविक परार्थ श्रुतप्रमाण है। ज्ञाता या वक्ता का जो अभिप्राय रहता है और अंशग्राही है, वह ज्ञानात्मक स्वार्थ श्रुतप्रमाण है। इस तरह ज्ञानात्मक स्वार्थ श्रुतप्रमाण और वचनात्मक परार्थ श्रुतप्रमाण दोनो नय हैं। यही कारण है कि दर्शनग्रंथों में ज्ञाननय और वचननय के भेद से दो प्रकार के नयों का भी विवेचन प्राप्त होता है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि नय की प्रवृत्ति मति, अवधि, मन:पर्यय ज्ञानों द्वारा ज्ञात सीमित अर्थ के अंश में नहीं होती है तो क्या नय को समस्त पदार्थो के समस्त अंशों में प्रवृत्त होने वाले केवलज्ञान का अंश माना जा सकता है। इसका समाधान आचार्य विद्यानंद ने देते हुए लिखा है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष (स्पष्ट) रूप से पदार्थों के समस्त अंशों का साक्षात्कार करता है। नय परोक्ष (अस्पष्ट) रूप से समस्त पदार्थो के अंशों का एकैकशः निश्चय करता है। इसलिए नय केवलमूलक नहीं है। वह मात्र परोक्ष श्रुतप्रमाणमूलक ही है। श्रुतज्ञान के संबन्ध में आचार्यों ने यह भी लिखा है कि श्रुत के उपयोग होते हैंस्याद्वाद और नय। वस्तु के संपूर्ण कथन को स्याद्वाद एवं वस्तु के एक देश कथन को नय कहते हैं। यही कारण है कि आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान के बराबर माना है, दोनों में अन्तर मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का बताया है। इससे स्पष्ट है कि श्रुतज्ञान के उपयोग में भी स्याद्वाद रूप प्रमाण का अंश नय है। ज्ञात हो आचार्य अकलंक ने श्रुत के तीन भेद किये है- प्रत्यक्ष, निमित्तक, अनुमान निमित्तक तथा आगम निमित्तक।” जैनतर्कवार्तिककार प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत को न मानकर परोपदेशज और लिंगनिमित्तक ये दो ही श्रुत मानते हैं। इन भेदों में लिंगनिमित्तक के अन्तर्गत पूज्यपाद के नय स्वरूप को रखा जा सकता है। वक्ता या ज्ञाता का अभिप्राय नय ज्ञाता या वक्ता का अभिप्राय भी नय है। द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के विषय में ज्ञाता का अभिप्राय भेद या अभेद को लेकर होता है। उदाहरणार्थ एक ज्ञानी वस्तु में स्थायित्व देखकर उसे नित्य कहता है। वस्तु में होने वाले परिवर्तन आदि को देखकर दूसरा उसे अनित्य कहता है। ये विभिन्न अभिप्राय नय या दुर्नय अथवा नयाभास कहे जाते हैं। जब अपने अपने अभिप्रायों को स्वीकार करते हुए भी दृष्टिभेद से दूसरे के अभिप्राय का निराकरण नहीं करते तब दोनों के ही उन अभिप्रायों को नय कहा जाता है। इसके विपरीत
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy