SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 28 अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 वादों को सुलझा नहीं सकता। समस्त वचन प्रयोग और लोक व्यवहार नयाश्रित हैं। षट्खण्डागम में वस्तुव्यवस्था के लिए नय विवक्षा की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया है। अनुयोगद्वार में स्पष्ट बताया गया है कि कौन नय किन कृतियों को विषय करते हैं।' एतदर्थ वहाँ 'नयविभाषणता' नामक एक स्वतंत्र अनुयोग द्वार का भी उल्लेख प्राप्त होता है। आचार्य पूज्यपाद ने बताया है कि प्रमाण से ही नय की उत्पत्ति हुई है।' आचार्य समन्तभद्र ने भी प्रमाण और नय दोनों को वस्तु का प्रकाशक कहा है। प्रमाण के अंश नय आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट किया है कि प्रमाण के अंश नय हैं। जैनदर्शन में प्रमाण ज्ञान रूप है तथा वही अर्थ परिच्छेदक भी है। अन्य परंपराओं में इन्द्रियव्यापार, ज्ञातृव्यापार, कारकसाकल्य, सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माना गया है। जैनदर्शन की दृष्टि में ज्ञान, अर्थप्रमिति में अव्यवहित साक्षात् कारण है, इन्द्रियसन्निकर्ष आदि व्यवहित परंपरा से कारण हैं। इसलिए अव्यवहित करण को ही प्रमा का जनक स्वीकार करना युक्तिसंगत है। दूसरे प्रमिति अर्थप्रकाश अज्ञाननिवृत्तिरूप है, वह ज्ञान द्वारा ही संभव है, इन्द्रियसन्निकर्ष आदि द्वारा नहीं। मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान इन पांचों ज्ञानों को प्रमाण कहा गया है और इनसे अधिगम होता है। नय से भी प्रमाण की तरह अर्थाधिगम होता है। यहाँ प्रश्न उत्थित होते हैं कि क्या ज्ञान नयरूप है या नहीं, यदि ज्ञानरूप है, तो क्या वे प्रमाण हैं या अप्रमाण, यदि प्रमाण हैं तो उसे प्रमाण से अलग अर्थाधिगम का उपाय बताने की क्या आवश्यकता थी, यदि अप्रमाण है तब उससे यथार्थ अधिगम कैसे हो सकता है, यदि नय ज्ञानरूप नहीं है तब उसे सन्निकर्ष आदि की तरह ज्ञापक स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इन सभी प्रश्नों का समाधान आचार्य पूज्यपाद के इस कथन से हो जाता है कि नय, प्रमाण के अंश हैं। इसलिए वह न प्रमाण है और न अप्रमाण अपितु ज्ञानात्मक प्रमाण का एकदेश है। इसको आचार्य विद्यानन्द ने समुद्र का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि समुद्र से लाया गया घट भर जल न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रैकदेश है। यदि उसे समुद्र माना जाता है तो शेष जल असमुद्र कहा आयेगा अथवा समुद्रों की कल्पना करनी पड़ेगी। यदि उसे असमुद्र कहा जाता है तो शेषांशों को भी असमुद्र कहा जायेगा। इस स्थिति में समुद्र का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा तथा समुद्र का ज्ञाता भी किसी को नहीं कहा जा सकता। __अत: नय न प्रमाण है, न अप्रमाण अपितु प्रमाणैकदेश है। सर्वार्थसिद्धि की ही तरह स्याद्वादमंजरी में भी प्रमाण से निश्चित किये गये पदार्थों के एक अंशज्ञान करने को नय कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रमाण से ही नय की उत्पत्ति होने के कारण प्रमाण को श्रेष्ठ बताया गया है। नयचक्र में यद्यपि व्यवहार नय से निश्चयनय श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु इन दो नयों से प्रमाण को श्रेष्ठ नहीं माना गया है, क्योंकि प्रमाण आत्मा को चैतन्य में स्थापित करने में असमर्थ है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy