SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 है। ब्रिटेन में स्वास्थ्यादि पर प्रजा के कर का 58:, अमेरिका में 55: तथा मलेशिया में 43: धन व्यय किया जाता है। वास्तव में यह सर्वेक्षण चौंका देना वाला है कि हम भारतवासी दुनिया के सभी देशों की अपेक्षा (केवल दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर) अधिक कर चुकाते हैं लेकिन हमारे धन का अत्यल्प (जो सभी देशों से कम है) ही प्रजा के रक्षण, रंजन, व संवर्धन के काम आता है। इस प्रकार उक्तानुशीलन से यही निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस चरमराती हुई कर-व्यवस्था के प्रयोजन की ओर ध्यान धरकर इसमें अपेक्षित परिवर्तन किए जाएं। सरकारी वेतनभोगी लोगों से भिन्न वे बड़े किसान, उद्योगपति, व्यापारी, अभिनेता, सरकारी नेता इत्यादि जो बड़ी ही आसानी से टैक्स देने से बचे रहते हैं वे सब भी ईमानदारी से कर का भुगतान अवश्य करें। अन्यथा 'नवभारत टाइम्स' के संपादक की यह टिप्पणी 'हर खच्चर की पीठ पर एक हाथी लदा है। तो मूर्तिमान है ही। जब देश का प्रत्येक व्यक्ति जो कर देने की श्रेणी में आता है, कर-भुगतान करेगा तो स्वतः सभी को अपनी आय कुछ ही प्रतिशत कर देना होगा। जिससे समाज में वैषम्य की स्थिति का किंचित् ह्रास अवश्य होगा। सरकार भी मनुस्मृति व महाभारतादि के वचनों को साररूप में स्मृतिपथ पर अंकित कर ले कि जो राजा बिना प्रजा की रक्षा किए कर-ग्रहण करेगा वह उसी भांति अपराधी है जैसे कोई क्षीरार्थी गाय के थन को काटकर दुग्ध प्राप्त करना चाहे। अतः कर-संग्रह में नृशंसता का परित्याग ही श्रेयस्कर है। संदर्भ 1. ऋग्वेद, दयानन्दभाष्य 5.30.11 2. अर्थशास्त्र पृ. 8, अ. 12 विशुद्ध मनुस्मृति- डॉ. सुरेन्द्र कुमार, 8.307; योऽरक्षन्बलिमादत्त्ते करं शुल्कं च पार्थिवः। प्रतिभागं च दण्डं च सः सद्यो नरकं व्रजेत्।। ___ वही, 7.129, यथाल्पाल्पमदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः। तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्रादाज्ञाब्दिकः करः।। वही, 7.128; यथा फलेन युज्येत राजा कर्ता च कर्मणाम्। तथावेक्ष्य नृपो राष्ट्र कल्पयेत्सततं करान्।। 6. वही, 7,127; क्रयविक्रयमध्वानं भक्तं व सपरिव्ययम्। योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजो दापयेत्करान्।। 7. वही, 7.130-132 महाभारत, उद्योगपर्व 34.17; यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः। तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।। 9. महा, शान्तिपर्व 89.4; वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकृन्तयेत्। 10. वही, 89.5) जलौकावत् पिबेत् राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः। व्याघ्रीव च हरेत् पुत्रमदृष्ट्वा मा पतेदिति।। 11. वही, 89.6) यथा शल्यकवानाखः पादं धनयते सदा। अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत्।। 12. वही, 72.20) तथा वही, उद्योगपर्व 34.18 13. व्यवहारभाष्य 11, पृ. 128-अ 5.
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy