SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 कारण (अर्थात् आस्रव रूप का समय वाला सातावेदनी कर्म के बंध का कारण) कौन होता है? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि काय वर्गणा का आलंबन लेकर जो आत्मप्रदशों में परिस्पन्द हुआ है उस स्वरूप जो योग है, वह सयोगकेवली के समुद्धात काल में बन्ध का कारण है। अतः तीनों योग एक साथ बन्ध में कारण होते हैं ऐसा नहीं है। इस आस्रव व्यवस्था पर जैनाचार्यों ने ही मुख्यरूप से विचार किया है। जैनदर्शन में विशेष वर्णन है जैसे प्रो. योकोबी ने लिखा है कि आस्रव संवर तीनों शब्द जैनधर्म के समान ही प्राचीन है। बौद्धों ने उनमें से अधिक महत्त्व वाले आस्रव को उघार लिया है। वे इसका उपयोग लगभग इसी भाव में करते हैं परन्तु उसके शब्दार्थ में नहीं करते। क्योंकि वे कर्म को एक वास्तविक पदार्थ नहीं मानते हैं और आत्मा को अस्वीकार करते हैं जिसमें आस्रव का होना संभव है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि कर्मवाद जैनों का एक मौलिक व महत्त्वपूर्ण वाद है और वह बौद्धधर्म की उत्पत्ति की अपेक्षा प्राचीन है। आस्रव तत्त्व का विशद वर्णन संसार व्यवस्था का परिज्ञान का मुख्य कारण है। इसलिए तात्त्विक विवेचना का मुख्य विषय आस्रव है। इसके ज्ञान के बिना कर्मबन्ध से बचना संभव नही है यही कारण है कि आस्रव के स्वरूप और कारण पर विचार करना आवश्यक है। आस्रव में कषाय की भूमिका का महत्त्वपूर्ण स्थान है इसलिए जैनाचार्यों ने कषाय सहित और कषाय रहित जीव की आस्रव व्यवस्था को दिखलाया है। इस विषय में तत्त्वार्थसूत्रकार कहते हैं- सकषाय (कषाय सहित) जीवों के साम्परायिक और अकषाय (कषाय रहित) जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है। स्वामी की विवक्षा से आस्रव की दो प्रकार की प्रसिद्धि है। जो कषाय सहित है वे सकषाय है। इनकी सत्ता दशम गुणस्थान तक है तथा जो- कषाय रहित हैं, वे अकषाय हे ये दशम गुणस्थान के ऊपर होते हैं। अतः आस्रव के अनन्त भेद होने पर भी सकषाय और अकषाय इन दो स्वामियों की अपेक्षा आस्रव के भी दो प्रकार माने गये हैं- साम्परायिक और ईर्यापथ। १- साम्परायिक आस्रव सम्पराय (संसार) ही जिसका प्रयोजन है, वह साम्परायिक है। क्रोधादिक विकारों के साथ होने वाले आस्रव को साम्परायिक आस्रव कहते हैं। यह आस्रव अनादिकाल से आत्मा में चल रहा है। जब तक कषाय का संबन्ध रहता है तब तक साम्परायिक आस्रव ही होता है। कषाय स्निग्धता का प्रतीक है। जैसे तेल सिक्त शरीर में धूलि चिपककर लम्बे समय तक चिपकी रहती है, वैसे ही कषाय सहित होने वाला यह आस्रव भी दीर्घकाल तक स्थायी रहता है। इसी को भट्टारक अकलंकदेव ने समझाया है कि सम्पराय कषाय का वाची है। मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक कषाय के उदय से आर्द्र परिणाम वाले जीवों के योग के द्वारा आये हुए कर्मभाव से उपइिवष्यपान वर्गणाऐं गीले चर्म या वस्त्र पर आश्रित धूलि की तरह चिपक जाती हैं, उनमें स्थिति बन्ध हो जाता है, वही साम्परायिक आस्रव है। यह चार कषायों पांच अव्रतों और सम्यक्त्व आदि पच्चीस क्रियाओं द्वारा जीव निरन्तर करता है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy