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________________ आस्रव स्वरूप और कारण -डॉ. श्रेयांस कुमार जैन संसार-भ्रमण के प्रमुख हेतु आस्रव और बन्ध हैं। कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए संसाररूपी कार्य को जानने के लिए उसके कारण आस्रव एवं बन्ध को जानना आवश्यक है। आस्रव पूर्वक बन्ध होता है आस्रव को समझने के लिए आस्रव के कारणों पर विचार किया जा रहा है। गीले वस्त्र में आने वाली धूल की तरह कषाय के कारण आत्मा में कर्मों का चिपकाव होता है। गीला कपड़ा जैसे हवा के साथ लाई गई धूलि को चारों ओर से चिपटा लेता है उसी प्रकार कषाय से रञ्जित आत्मा योग के निमित्त से आई हुई कर्मरज को संपूर्ण आत्मप्रदेशों द्वारा खींच लेता है। इसे दूसरे उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है जैसे वह्नि संतप्त लोहे को पानी में डाला जाय तो वह चारों तरफ से जल को अपने में खींचता है उसी प्रकार कषाय से संतप्त आत्मा योग के द्वारा आई हुई कार्मण वर्गणाओं को चारों तरफ से खींचता है। कर्मों का आत्मा द्वारा ग्रहण करना या कर्मों का आकर्षण ही तो आस्रव है। इसी प्रकार आस्रव को तत्त्वार्थवार्तिककार ने उदाहरण सहित इस प्रकार समझाया है-"तत्प्रणालिकया कर्मास्रवणादानवाभिधानं सलिलद्म वाहिद्वारवत्। पद्मसर:सलिलवाहि द्वारं तदास्रवकारणत्वात् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति" अर्थात् जैसे तालाब के जलागमन द्वार से पानी आता है, वह जलागमन द्वार जल के आने का कारण होने से आस्रव कहलाता है, उसी प्रकार योग-प्रणाली से आत्मा में कर्म आते हैं अतः योग को ही आस्रव कहते हैं। काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। यही योग आस्रव कहा हैमनोवर्गणा, वचनवर्गणा, कायवर्गणा का आश्रय लेकर योग होता है। जो कर्म के आगमन का कारण है उसकी योग संज्ञा है। सभी योगों को आस्रव नहीं कहते हैं। इसी को स्पष्ट करने हेतु आचार्य उमास्वामी ने "कायवाड्.मनः कर्म योगः" और 'स आस्रवः" दो सूत्रों की रचना की जिनसे ज्ञात होता है कि सभी योग आस्रव नहीं है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आचार्य भास्करनन्दि ने लिखा है "यदि ऐसा अर्थ इष्ट नहीं होता तो “कायवाड्. मनः कर्म योग आस्रवः" ऐसा एक सूत्र बनता और स शब्द नहीं रहने से सूत्र लाघव होता है एव इष्ट अर्थ भी सिद्ध हो जाता है। सभी योग आस्रवरूप नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सयोगकेवली जब केवली समुद्घात करते हैं तब दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप आत्मप्रदेशों का फैलना होता है, इस क्रिया स्वरूप जो योग हैं, वह कर्मबन्ध का कारण नहीं है। यहाँ प्रश्न है कि सयोगी जिनके उस केवली समुदघात अवस्था में कर्मबन्ध का
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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