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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 30. वही पृष्ठ-2 31. उत्तराध्ययन चूर्णि पृष्ठ- 9 32. स्याद्वादरत्नाकर 1/1 पृष्ठ-8 33. अनुयोगद्वार मलयवृत्ति पृष्ठ-59 34. तत्त्वार्थ भाष्य 1/35 प्रकाशन, श्रीमद राजचन्द्र-ग्रंथमाला आगास 35. उत्तराध्ययन चूर्णि पृष्ठ-9 36. नयदर्पण पृष्ठ 138 37. वही पृष्ठ- 138, 139 38. सम्मइसुत्तं 3/47 प्रकाशन, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली सन् 2003 39. लघुनयचक्र- आचार्य देवसेन गाथा 11 पृष्ठ-8 40. आचार्य देवसेन-आलापपद्धति सूत्र- 40 गाथा-4 41. आचार्य कुन्दकुन्द समयसार गाथा-11 42. तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थरमूलवागरणी। दव्वटिठयो य पज्जवणयो य सेसा वियप्पा सिं।। आचार्य सिद्धसेन-सम्मइसुत्तं गाथा 3 43. नयचक्र गाथा- 17,18 44. वही गाथा 21 45. नयचक्र- 27-32 46. बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वको मोक्षोऽपि। यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बंधो भवति तदा सर्वदैव बंध एव, मोक्षोनास्ति, आचार्य ब्रह्मदेव बृहद्र्व्यसंग्रह गाथा 57 टीका 47. आचार्य देवसेन अलापपद्धति- सूत्र 219 48. अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा आचार्य नेमिचन्द्र-द्रव्यसंग्रह 49. आचार्य उमास्वामी-तत्त्वार्थसूत्र 5/19 - 21, महावीर भवन सर्वऋतु विलास, उदयपुर (राजस्थान) भूल तो सदा कचोटती रहेगी ! वे रूढ़ियाँ जो सदियों से चली आ रही हैं और जिन्होंने धर्म के मूल-रूप को आत्मसात् कर लिया है-ढंक लिया है, इतनी गाढ़ी हो गई हैं कि उनका रंग सहज छटने का नहीं। ऐसी रूढ़ियों में एक रूढ़ि है अपरिग्रह को उपेक्षित कर 'अहिंसा को मूल जैन-संस्कृति' प्रचारित करने की। यूं तो संसार के सभी मत-मतान्तर हिंसा को पाप और अहिंसा को धर्म बतलाते हैं। पर, जैनी इसमें सबसे आगे हैं। जब कभी कहीं अहिंसा का प्रसंग उठता है, जैनी बांसों उछलते हैं और गर्व के वेग में कहते हैं किजैनियों द्वारा मान्य अहिंसा सर्वोपरि है जहाँ दूसरों में अहिंसा के व्यावहारिक रूपों को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है वहां जैन इसके मूल तक पहुंचे हैं उन्होंने संकल्पित, कृत कारित, अनुमोदित, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति-रूपों में भी हिंसा के त्याग को उपदेश दिया है, और 'सम्यग्योग निग्रहोगुप्ति का उपदेश दिया है, आदि। नि:संदेह जैनियों की अहिंसा पर सबको गर्व है। पर, इस गर्व में कहीं सब इतने तो नहीं फूल गये हैं कि उनके द्वारा जाने-अनजाने में जैन संस्कृति के मूल अपरिग्रह पर ही चोट हो रही हो ? ___- श्री पदमचंद जैन शास्त्री संपादक- अनेकान्त, वर्ष 37, किरण-3 से साभार
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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