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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 अकृत्रिम और अनिधन अर्थात् अनादि अनन्त चन्द्रमा सूर्य आदि पर्यायों को ग्रहण करता है उसे जिन भगवान ने अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय कहा है। सादि नित्य पर्यायार्थिक नय जो पर्याय कर्मो के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है और विनाश का कारण न होने से अविनाशी है, ऐसा सादिनित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है। अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय जो सत्ता को गौण करके उत्पाद व्यय को ग्रहण करता है, उसी अनित्य स्वभाव को ग्रहण करने वाला शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। सत् का लक्षण आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में इस प्रकार किया है"उत्पादव्ययध्रौव्युक्तं सत्" सत् का लक्षण उत्पाद- व्यय-ध्रौव्य है। प्रत्येक वस्तु प्रति समय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव भी रहती है। इनमें से जो नय ध्रौव्य को गौण करके प्रति समय होने वाले उत्पाद व्यय रूप पर्याय को ही ग्रहण करता है वह नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय जो एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त पर्याय को ग्रहण करता है वह अनित्यअशुद्धपर्यायार्थिक नय है। निरपेक्ष अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक नय जो संसारी जीवों की पर्यायों को सिद्धों के समान शुद्ध कहता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। सापेक्ष अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय जो चार गतियों के जीवों की अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।' आचार्य उमास्वामी ने जिन (नैगमादि) सात नयों का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में किया है उन्हीं को आचार्य देवसेन ने भी नयचक्र एवं आलापपद्धति में वर्णित किया है। आचार्य देवसेन ने नयचक्र एवं आलापपद्धति में समान रूप से नयों, उपनयों के स्वरूप का कथन किया है। नयों के स्वरूप एवं भेदों में अन्य आचार्यों से समानता है। आलापपद्धति में उपसंहाररूप में नयों का कथन अध्यात्मभाषा से किया है। नयों के मूल भेद है एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय। निश्चय नय का विषय अभेद है और व्यवहार नय का विषय भेद है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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