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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 करता है उसे नय कहते हैं। उस ज्ञान से जो युक्त होता है वह ज्ञानी है।। सम्यक्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। प्रमाण के अवयव नय है। • प्रमाण के द्वारा ग्रहण की हुई वस्तु के एक अंश को ग्रहण करें वह नय है। इसी बात को वीरसेन आचार्य इस प्रकार कहते हैं। • प्रमाणपरिगृहीतार्थेकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः।” प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गयी वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करने वाला ज्ञान नय है। तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पवात्साध्यविशेषस्य यथात्म्यप्रापणप्रवण प्रयोगो नयः। अनेकान्त वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता के प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं।।8 वस्तु के अनेक स्वरूप में उनमें से किसी एक निश्चित स्वरूप को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता है। नय का स्वरूप एवं भेद किसी वस्तु के विषय में ज्ञाता का जो अभिप्राय होता है वह नय है। कहा है "ज्ञातुरभिप्रायो नयः" वस्तु के विषय में ज्ञाता का जो अभिप्राय होता है वह नय है। नय वस्तु के अंश को जानता है जबकि प्रमाण समग्र वस्तु को जानता है इसलिये एक अंशग्राही ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। सभी वस्तुएं अनन्तधर्मात्मक होती है ज्ञाता अपने प्रयोजन के अनुसार उन अनन्त धर्मो में से से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है। एक ही वस्तु में विभिन्न ज्ञाताओं के विभिन्न धर्मो को लेकर विभिन्न अभिप्राय हो सकते हैं। ये सभी अभिप्राय नय कहलाते हैं। प्रत्येक नय या अभिप्राय वस्तु के केवल एक धर्म को ग्रहण करता है परंतु वह दूसरे धर्मों का निराकरण नहीं करता अपितु अन्य धर्म सापेक्ष होता है इसी कारण यह सुनय कहलाता है। यदि अन्य धर्मों का निराकरण करने लगे तो उसका अभिप्राय दुर्नय हो जाता है, इन नय प्रमाणों और निक्षेपों के द्वारा जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है। वर्तमान उपलब्ध नय विषयक स्वतंत्रकृति आचार्य देवसेन की है। आचार्य देवसेन द्वारा रचित नयचक्र प्राकृत भाषा में है। इस नयचक्र में आचार्य देवसेन ने संपूर्ण नयों का वर्णन किया है। जं णाणीण वियप्पं सुयभेयं वत्थुअंस संगहणं। तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेहि णाणेहि। जह्मा ण एण विणा होइ णरस्स सियवाय पडिवतत्ती। तह्मा सो बोहव्वो एअंतं हतुकामेण॥ ज्ञानी का जो विकल्प है उसे नय कहते हैं। अथवा श्रुत ज्ञान के भेद को नय कहते
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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