SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 उत्पत्ति का और संसारस्थिति कटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्तन संसारकाल रह जाने का एक ही समय है। यद्यपि इस एक समय की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन होता है, तथापि कार्य-कारण की दृष्टि से देखा जाय तो सम्यग्दर्शन परिणाम में ही यह शक्ति है कि अनादिमिथ्यादृष्टि का अनन्त संसार (अंतरहित संसारकाल) काटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्तनसंसारकाल रह जाना कार्य है। कहा भी है “एगो अणादिय मिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुव्वकरणं अणियट्ठिकरणमिदि एदाणि तिण्णि करणाणि कादूण सम्मत्तंगहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुव्विल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्ठिदूण परित्तो पोग्गलपरियट्टस्स अद्धमेत्तो होदूण उक्कसेण चिट्ठदि"। ___“एक अनादिमिथ्यादृष्टि अपरीतसंसारी (जिसके संसार की अवधि न हो अथवा अंत न हो) जीव, अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अन्त-रहित संसार को छेदकर परीत (सान्त, सावधि) संसार हो, अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल तक संसार में रहता है।" इस संबंध में कुछ और आगम प्रमाण नीचे दिया जाना प्रासंगिक है: “एक्को अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णो। तेण सम्मत्तेण उप्पज्जमाणेण अणंतो संसारो छिण्णे संतो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्ते कदो।" (धवल पृ.479) अर्थः- एक अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यजीव तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व से अनन्त (अंतरहित) संसार छिन्न होता हुआ अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकाल मात्र कर दिया गया। “एक्केण अणादियमिच्छादिट्ठाणा तिण्णि करणाणि कदूण उवसमसम्मत्त पडिण्णपढमसए अंणतो संसारो छिण्णी अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तों कदो।" (धवल पृ. 5 पृ. 11, 12, 14, 15, 16, 19) अर्थः- एक अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यजीव ने अधः प्रवृत्तादि तीनों करण करके, उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथमसमय में अनन्त (अन्त रहित अमर्यादित) संसार को छिन्नकर अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमात्र किया। “अप्पडिवण्णे सम्मत्ते अणादिअणंतो भविय-भावो अंतादीदसंसारदो; पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णे भवियभावों उप्पज्जइ, पोग्गलपरिट्टरस अद्धमेत्तसंसारावट्टाणादो।" (धवल पृ. 7 पृ. 177) अर्थ- जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि-अनन्तरूप है, क्योंकि तब तक उसका संसार अंतरहित है, किंतु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकाल तक संसार में स्थिति रहती है। "अणादियमिच्छादिट्ठिम्मि तिण्णि वि करणाणि काऊण उवससम्मत्तं पडिवण्णम्मि अणंतसंसारं छेत्तूण दविद-अद्धपोग्गलपरियदिम्मि।" (जयधवला पु.2 पृ.253) अर्थअनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणों को करके "उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और अनन्त (अंतरहित) संसार को छेदकर संसार में रहने के काल को अर्द्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण किया।"
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy