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________________ 47 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 पं. टोडरमल जी ने मोक्ष मार्ग प्रकाशक में लिखा है "काललब्धि व होनहार तो कुछ वस्तु नाहीं। जिस काल विषै जो कार्य होय है, सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोही होनहार है जो मिध्यादृष्टि ऐसा कहते है कि जब होनहार होगी तब सम्यग्दर्शन होगा, उससे आगे पीछे सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता उसको सम्यग्दृष्टि कहता है- 'यदि तेरा ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई कार्य का उद्यम मति करें। तू खान-पान, व्यापार आदि का तो उद्यम करे, और यहां होनहार बताये, सो जानिए है तेरा अनुराग यहां नहीं है । ' अर्द्ध पुद्गल परावर्त्तन का जघन्य काल भी अनंत है। अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तन का जघन्यकाल भी अनंत है और उत्कृष्टकाल भी अनंत है, किंतु जघन्य से उत्कृष्ट का काल अनंत गुणा है। धवल पृ. 4 पृ. 331. अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में भी अनंत सागर होते हैं। कार्मणवर्गणा और नोकर्मवर्गणा इन दोनों की अपेक्षा से एक पुद्गलपरावर्तनकाल होता है । यह अनंतरूप है। इनमें से एक की अपेक्षा अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनकाल है। यह अर्द्ध पुद्गल परावर्तन अपने समयों की संख्या की अपेक्षा मध्यम अनंतानंत स्वरूप है। यह काल अवधि ज्ञान तथा मनः पर्यय ज्ञान के विषय के बाहर हैं। यह मात्र केवल ज्ञान का विषय होने से भी" अनंत" कहलाता है। यह औपचारिक अनंत है क्योंकि इसकी समाप्ति देखी जाती है। “अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्तनकाल सक्षयोऽप्यनंतः छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात्। केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा । जीवराशिस्तु पुन: संख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादन इति।" (धवल पृ.1 पृ. 292) अर्थ: अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसलिये अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अंत नहीं पाया जाता है। किंतु केवलज्ञान वास्तव में अनन्त है अथवा अनन्त को विषय करने वाला होने से वह अनन्त है। संख्यातराशि के क्षय हो जाने पर भी जीवराशि को निर्मूल नाश नहीं होता, इसलिये वह अक्षय अनन्त है। समयसार गाथा 320 की टीका के भावार्थ में 'समुद्र में बूंद की गिनती क्या" ऐसा लिखा है। यह दृष्टांतरूप में है, किंतु यह कथन दान्त पर कैसे घटता है? समाधान: भावार्थ में लिखा है- "मिध्यात्व के चले जाने के बाद संसार का अभाव ही होता है, समुद्र में बूंद की क्या गिनती ?" यहां पर यह बतलाया गया है कि समुद्र में जल अपरिमित है और जलबिन्दु परिमित है तथा समुद्रजल की अपेक्षा बहुत सूक्ष्म अंश है। इसी प्रकार अनादिमिध्यादृष्टि का संसारपरिभ्रमणकाल समुद्रजल की तरह अपरिमित है अनन्तानन्त है, किंतु मिथ्यात्व चले जाने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन हो जाने पर अपरिमित अनन्तानन्त संसारपरिभ्रमणकाल घटकर मात्र अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकाल रह जाता है, जो अनंतानन्त संसारकाल की अपेक्षा बहुत अल्पकाल है अर्थात् समुद्र में जलबिन्दु के समान है। यहां यह शंका उपस्थित होती है कि सम्यग्दर्शन होने पर संसार की स्थिति अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तन रह जाती है या जब अद्धपुद्गलपरावर्त्तन स्थिति रह जाती है तब सम्यग्दर्शन होता है? समाधान सम्यग्दर्शन होने के प्रथमसमय में संसार की अनन्तस्थिति कटकर अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तनमात्र रह जाती है। अनादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन की
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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