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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 ग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति। इयमेका काललब्धिः। अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिः। उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति। क्व तर्हि भवति? अन्त:कोटीकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनपायामन्तः कोटीकोटीसागरोपरमास्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया भव्य पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्यादयाति। 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादि परिगृह्यते। अर्थः अब यहां काललब्धि को बतलाते हैं- कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्द्धपुदगल परावर्तन काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धिका संबंध कर्म स्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता। शंका- तो फिर किस अवस्था में होता है? समाधान- जब बंधनेवाले कर्मो की स्थिति अन्त:कोड़ा कोड़ी सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागरोपम कम अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरोपम प्राप्त होता है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है- जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। 'आदि' शब्द से जाति स्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए। उक्त काललब्धि का वर्णन किया है। लब्धि शब्द का अर्थ कारण भी होता है। "काललब्धि" शब्द काल की कारणाता को बताता है। किन्तु काल उदासीन निमित्त (कारण) होता है। प्रेरक निमित्त नहीं। चार द्रव्य धर्म अधर्म अकाश और काल चारों ही द्रव्य शुद्ध हैं निष्क्रिय हैं एवं उदासीन निमित्त हैं। चारों ही द्रव्य संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं और प्रतिसमय उदासीन रूप से अपने-अपने विषयों में सहायता करने के लिए उपलब्ध रहते काललब्धि के बारे में सर्वार्थसिद्धिकार ने कहा है कि जब संसार की स्थिति अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल रह जाती है तब ही सम्यग्दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है। यहां यह प्रश्न उठता है कि सम्यग्दर्शन होने पर संसार की स्थिति अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल रह जाती है या जब अर्द्धपुद्गल परावर्तन स्थिति रह जाती है तब सम्यग्दर्शन होता है? इस प्रश्न के समाधान में पं. रतनचंद जी मुख्तार ने लिखा है कि सम्यग्दर्शन होने के प्रथम समय में संसार की अनंत स्थिति कटकर अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र रह जाती है। अनादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का और संसारस्थिति कटकर अर्द्धपुद्गल परावर्तन संसारकाल रह जाने का एक ही समय है। यद्यपि एक समय की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि अर्द्ध पुद्गल परिणाम काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन होता है तथापि कार्य कारण की दृष्टि से देखा जाय तो सम्यग्दर्शन रूप परिणति में ही वह शक्ति है कि अनादि मिथ्यादृष्टि का अनंत संसार (अंत रहित संसारकाल) काटकर अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र कर देवे। इसलिए सम्यग्दर्शन कारण है और अर्द्धपुदगल परावर्तन संसारकाल रह जाना कार्य है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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