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________________ काललब्धि __-मूलचन्द लुहाड़िया तत्त्वार्थ सूत्र में काल द्रव्य का वर्णन पंचम अध्याय में आया है। किन्तु काल द्रव्य की बात अध्याय के लगभग अंत में 39 वें "कालश्च" सूत्र में कही है। सूत्रकार को अजीव द्रव्यों के नाम और लक्षण तो प्रारंभ में ही बता देना चाहिए था। अजीव अस्तिकाय रूप चार द्रव्यों के पश्चात् "जीवाश्च" सूत्र के आगे पीछे ही "कालश्च" सूत्र में आ जाना चाहिए था। परन्तु अन्य अजीव द्रव्यों का वर्णन करने के बाद अंत में 39वें सूत्र जाकर "कालश्च" सूत्र के द्वारा काल द्रव्य वर्णन किया गया है। पहले क्यों नहीं किया? इसी प्रकार तत्त्वार्थ भाष्य में "कालश्च" के स्थान पर "कालश्चेत्येके" सूत्र आया है। तत्त्वार्थ भाष्यकार कहते हैं कि कोई लोग काल को द्रव्य मानते हैं, वे स्वयं नहीं। यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थ भाष्य में जहां भी द्रव्यों का कथन आता है वहां वहां पांच अस्तिकायों का ही उल्लेख किया है और लोक को पंचास्तिकायात्मक बतलाया है। श्वेताम्बर आगम में कहीं कहीं 6 द्रव्यों का उल्लेख करते हैं वहां काल द्रव्य के स्थान पर "अद्धासमय" शब्द का प्रयोग किया है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारंभ में सूत्र "कालश्च" ही रहा होगा। बाद में उसने "कालश्चेत्येके" रूप ले लिया हो सकता है। सर्वार्थसिद्धि में काल के उपकार के वर्णन में परत्वापरत्व के 2 भेद किए हैं। "-परत्वारत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः। जबकि तत्त्वार्थ भाष्य में तीन भेद हैं। परत्वापरत्वे त्रिविधे-प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति।। हम देखते हैं कि इस संबन्ध में तत्त्वार्थवार्तिककार तत्त्वार्थभाष्यकार का ही अनुसरण करते है। उन्होंने काल के उपकार के प्रतिपादक सूत्र का व्याख्यान करते हुए परत्व और अपरत्व के उक्त तीन भेदों का ही उल्लेख किया है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तत्त्वार्थ भाष्य तत्त्वार्थवार्तिककार के सामने था और उसी प्रकार तत्त्वार्थ भाष्य सर्वार्थ सिद्धि के बाद की रचना है, इस कथन की पुष्टि होती है। दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं में काल द्रव्य के अस्तित्व के संबन्ध में पाये जाने वाले मतभेद के कारण ही मूल सूत्र और उसकी टीकाओं में अंतर दिखाई देता है। इस लेख के मुख्य विषय को स्पर्श करने के लिए हमें तत्त्वार्थ सूत्र के द्वितीय अध्याय के तीसरे सूत्र की टीका को सर्वार्थसिद्धि में देखना है। वहां औपशमिक भाव के भेदों का वर्णन करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है कि अनादि मिथ्या दृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है? समाधान में कहा है "काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्" काललब्धि आदि के निमित्त से उन कर्मों का उपशम होता है। काललब्धि का वर्णन करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार ने लिखा है तत्र काललब्धि स्तावत्-कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेद्धपुद्गलपरिवर्त्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्व
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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