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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 विंध्य क्षेत्र के जैन ग्रंथ भंडारों में संग्रहीत विशिष्ट पाण्डुलिपियाँ __- डॉ. अनुपम जैन एवं सुरेखा मिश्रा जैन धर्म के अनुयायी जिन्हें श्रावक की संज्ञा दी जाती है, के दैनिक षट्कर्मों में आराध्य देव तीर्थकरों की पूजा, निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरुओं की उपासना, स्वाध्याय, तपश्चरण एवं दान सम्मिलित है। इन षट्कर्मों में स्वाध्याय सम्मिलित होने के कारण श्रावकों की प्राथमिक आवश्यकताओं में परंपराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्र सम्मिलित हैं। स्वाध्याय का अर्थ परंपराचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों का नियमित अध्ययन है, फलतः जैन उपासना स्थलों (जिन मंदिरों) के साथ स्वाध्याय के लिए आवश्यक शास्त्रों का संकलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण श्रावक प्रतिलिपिकार विद्वानों की मदद से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ कराकर मंदिरों में विराजमान कराते थे। जैन ग्रंथों में उपलब्ध कथानकों में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें व्रतादिक अनुष्ठानों की समाप्ति पर मंदिरजी में शास्त्र विराजमान कराने अथवा भेंट में देने का उल्लेख मिलता है। विशिष्ट प्रतिभा संपन्न पंडितों को उनके अध्ययन में सहयोग देने हेतु श्रेष्ठियों द्वारा सुदूरवर्ती स्थानों से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ मंगवाकर देने अथवा किसी शास्त्र विशेष की अनेक प्रतिलिपियाँ कराकर तीर्थयात्राओं के मध्य विभिन्न स्थानों पर भेंट स्वरुप देने के भी उल्लेख विद्यमान हैं। जैन परंपरा में प्रचलित इस पद्धति के कारण अनेक मंदिरों के साथ अत्यन्त समृद्ध शास्त्र भंडार भी विकसित हुए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी जिसे श्रुत पंचमी की संज्ञा प्रदान की जाती है, के दिन इन शास्त्रों की पूजन, साज-संभाल की परंपरा है। अतः शास्त्र के पन्नों को क्रमबद्ध करना, नये वेष्ठन लगाना, उन्हें धूप दिखाना आदि सदृश परंपराएं शास्त्र भण्डारों के संरक्षण में सहायक रहीं। यही कारण है कि मध्यकाल के धार्मिक विद्वेष के झंझावातों एवं जैन ग्रंथों को समूल रूप से नष्ट किए जाने के कई लोमहर्षक प्रयासों के बावजूद आज कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, बिहार आदि के अनेक मठों, मंदिरों में दुर्लभ पाण्डुलिपियों को समाहित करने वाले सहस्राधिक शास्त्र भंडार उपलब्ध हैं। जैन आचार्यों एवं प्रबुद्ध श्रावकों की साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मसाधना रहा है। यद्यपि जैन परंपरा स्वयं के तपश्चरण के माध्यम से कर्मों की निर्जरा कर आत्मा से परमात्मा बनने में विश्वास करती है, तथापि आत्मसाधना से बचे हुए समय में जन कल्याण की पुनीत भावना अथवा श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव से अनुप्राणित होकर जैनाचार्यों ने लोक-हित के अनेक विषयों पर विपुल ग्रंथ राशि का सृजन भी किया है। ___ हम यहाँ विंध्य क्षेत्र में उपलब्ध जैन ग्रंथ भंडारों एवं उनमें संगृहीत विशिष्ट पाण्डुलिपियों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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