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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 उक्त श्लोक का भाष्य आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इस प्रकार किया है यद्यपि जिनलिंग को- निर्ग्रन्थ जैनमुनिमुद्रा को धारण करने के पात्र अतिनिपुण एवं विवेक संपन्न मानव ही होते हैं फिर भी जिनदीक्षा लेने वाले साधुओं में कुछ ऐसे भी निकलते हैं जो बाह्य में धैर्य का अनुष्ठान करते हुए भी अंतरंग से संसार का अभिनन्दन करने वाले होते हैं। ऐसे साधुओं की पहचान एक तो यह है कि वे आहारादि चार संज्ञाओं के अथवा उनमें से किसी के भी वशीभूत होते हैं; दूसरे लोकपंक्ति में- लौकिक जनों जैसी क्रियाओं के करने में उनकी रुचि बनी रहती है और उसे वे अच्छा समझकर करते भी हैं। आहारसंज्ञा के वशीभूत मुनि बहुधा ऐसे घरों में भोजन करते हैं जहाँ अच्छा-रुचिकर एवं गरिष्ठ-स्वादिष्ट भोजन मिलने की अधिक संभावना होती है, उदिदष्ट भोजन त्याग की आगमोक्त दोषों के परिमार्जन की परवाह नहीं करते, भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रों से आया हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञा के विरुद्ध होता है। भयसंज्ञा के वशीभूत मुनि अनेक भयों से आक्रान्त रहते हैं, परीषहों के सहन करने से घबराते हैं तथा वनवास से डरते हैं जब कि सम्यक्दृष्टि सप्त प्रकार के भयों से रहित होता है। मैथुनसंज्ञा और परिग्रह संज्ञा वाले साधु अनेक प्रकार के परिग्रहों की इच्छा को धारण किये रहते हैं, पैसा जमा करते हैं, पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं, अपने इष्टजनों को पैसा दिलाते हैं, पुस्तकें छपाकर बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, तालाबन्द बाक्स रखते हैं, बाक्स की ताली कमण्डलु आदि में रखते हैं, पीछी में नोट छिपाकर रखते हैं, अपनी पूजाएं बनावाकर छपवाते हैं और अपनी जन्मगांठ का उत्सव मनाते हैं। उक्त सब लक्षण भवाभिनन्दियों के हैं जो पद्य में संज्ञावशीकृतो और लोकपंक्तिकृतादराः इन दोनों विशेषणों से फलित होते हैं, आजकल अनेक मुनियों में लक्षित भी होते हैं। उपर्युक्त भाष्य आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार ने आज से 6 दशक पूर्व किया था तब से आज समय काफी बदल चुका है। आज के संदर्भ में विचारणीय है कि नवतीर्थनिर्माण तन्निमित्तिक अनुष्ठान-रथ प्रवर्तन, दिग्विजय रथ प्रवर्तन-महाकुंभ आदि आयोजन और उसके लिए यत्र-तत्र-सर्वत्र विहार, आदि क्रियाएं श्रमणचर्या में समाहित हो चुकी हैं। ऐसी ही क्या आगमचक्षु साधु की चर्या होती है ? आज तो मैराथन दौड़ में अग्रणीय होने की आपा-धापी है। जबकि धर्म के निमित्त भी साधु की चर्या निम्नलिखित संदर्भ के अनुसार होनी चाहिए धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणांगं मनीषिणाम्। तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम्॥21॥ -योगसार प्राभृत अर्थात् - जो विवेकशील विद्वान् साधु हैं उनकी धर्मार्थ की गई लोकाराधन रूप क्रिया कल्याणकारिणी होती है और जो मूढचित्त अविवेकी हैं, उन साधुओं का लोकाराध न के निमित्त - लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए की गई धर्म संबन्धी क्रियाएं पापबंध का कारण होती हैं।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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