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________________ 20 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 का श्रेय लेने में भला संकोच कैसा? एक पंथ और दो काज- तीर्थ निर्माण और अर्थ-मोक्ष रूपी पुरुषार्थ ही सिद्धि। इतिहास साक्षी है कि कि मूर्ति भंजन काल में भी पापड़ीवाल जैसे श्रेष्ठी हुए, जिन्होंने हजारों प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित कराकर यत्र-तत्र सर्वत्र स्थापित करायी। यह एक शान्तिपूर्वक किया गया प्रतिरोध था तो जब आज अनेक प्राचीन तीर्थ अनावश्यक विवाद क्षेत्र बने हुए हैं ऐसे में नवतीर्थ बनाकर दिगम्बर वीतराग धर्म की प्रभावना को शत-प्रतिशत तन-मन-धन और जन का सहयोग मिलना अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता, सोने पे सुहागा यह कि वीतराग सन्त की प्रेरणा-निर्देशन में अतिशय पुण्य संचय का भला कौन विवेकी श्रावक लोभ संवरण कर सकता है? कदाचित् कोई नहीं। पुराने तीर्थ जायें तो जायें हमें तो उनके स्थानापन्न सुविधा संपन्न नए तीर्थों से इहलौकिक पारलौकिक पुण्य संचय तो मिलता ही रहेगा। प्रायः यह कहा जाता है कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करना-कराना अत्यंत दुष्कर कार्य है क्योंकि उसमें प्रभूत धन की आवश्यकता पड़ती है इसीलिए अतीत में पंचकल्याणक बिरल ही होते थे, परन्तु आज स्थिति पहले जैसी नहीं रही। प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में पंचकल्याणक होते हैं नित नए मंदिर का निर्माण आज जितना सहज है उतना संभवतः अतीत में नहीं था। आज धन गंगा की बाढ़ है यदि उसे बांधा न जाय तो भारी जन-धन और धर्म की हानि का खतरा हो सकता है। शायद इसीलिए हमारे श्रमण-सन्त इस धनगंगा की बाढ़ को मंदिरों और तीर्थों की ओर अभिमुख करने का भागीरथ प्रयत्न करके वीतराग जिनधर्म - निज धर्म-तप-संयम और भगवान् महावीर के सर्वोदयी तीर्थ की संकल्पना को मूर्त रूप देने में जुटे हुए हैं भले ही, श्रमण-चर्या में यत्किचित् दोष क्यों न होता हो धर्म प्रभावना के निमित्त यह दोष भी वह सहज वृत्ति से स्वीकारते हैं। उसके लिए आचार्यों ने प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण आदि का विधान किया ही है। अस्तु, यह समय आलोचना/समालोचना का नहीं वरन् एक विवेकी श्रद्धालु और जिनधर्मानुयायी होने के नाते हम सभी को ऐसे महाकुंभ में स्नान के लिए अभी से तैयारी प्रारंभ कर देनी चाहिए। ऐसे महाकुंभ शताब्दी में फिर हो न हों। इत्यलम्। विज्ञेषु किमधि कम्। आज श्रमणचर्या का अमोघ अस्त्र और मंत्र है तीर्थमेव परं ज्ञानं तीर्थमेव परं तपः। तीर्थमेव परो धर्मः तीर्थान्मोक्षश्च नैष्ठिकः।। -अज्ञात अर्थात् तीर्थ ही परम ज्ञान है, तीर्थ ही परम तप है, तीर्थ ही परम धर्म है और तीर्थ से ही नैष्ठिक निर्वाण की प्राप्ति होती है। इसीलिए उसे बनाते रहिए, ऐसा आजकल सर्वगत हो रहा है। आगमचक्षुसाधु निश्चित ही भवामिनन्दन की ओर अभिमुख हैं। भवाभि नन्दी मुनियों के विषय में आचार्य अमितगति ने स्पष्ट लिखा है भवाभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञावशीकृता। कुर्वन्तोऽपि परं धर्म लोकपंक्तिकृतादरा:।।-18॥ -योगसार
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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