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अध्यात्म-पद
लोभ महा दुखदाई
जिय कौ लोभ महा दुखदाई । जाकी सोभा वरनी न जाई ।।
लोभ करै मूरख संसारी ।
छाडै पंडित सिव अधिकारी ।। जिय . . . ||||
तजि घर वास फिरै वन मांही,
कनक कामिनी छांडै नांही ।।
लोक रिझावन कौं व्रत लीना ।
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व्रत न होय ठगि सा कीना । । जिय
लोभ वसात जीव हति डारै ।
झूठ बोलि चोरी चित धारै ।।
नारि है परिग्रह विसतारै ।
पांच पाप करि नरक सिधारै ।। जिय...
जोगी जती गृही वनवासी।
वैरागी दरवेश संन्यासी ।।
अजस खानि जस की नहीं रेखा ।
द्यानत जिनकै लोभ विसेखा ।। जिय..
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कविवर द्यानतराय जी