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________________ 174 अनेकान्त 61/1-2-3-4 'बल' उत्पन्न हुए।2। सुमित्रा का पुत्र लक्ष्मण हुआ जिसका दूसरा नाम 'हरि' भी था।222 केकया से भरत उत्पन्न हुए जिसकी 'अर्धचक्रवर्ती' के रूप में भी प्रसिद्धि हुई23 तथा सुप्रभा का पुत्र शत्रुघ्न था।24 2.8 जैन इक्ष्वाकु वंशावली : एक तुलनात्मक दृष्टि जैन पुराणों में वर्णित उपर्युक्त इक्ष्वाकु वंशावली की यदि वैदिक परम्परा द्वारा अनुमोदित इक्ष्वाकु वंशावली के साथ तुलना की जाए तो अनेक प्रकार की विसंगतियां भी सामने आती हैं। वैदिक परम्परा के अनुसार वैवस्वत मनु ने सर्वप्रथम अयोध्या नगरी की स्थापना की थी और उसके सौ पुत्रों में ज्येष्ठ इक्ष्वाकु अयोध्या का उत्तराधिकारी बना तथा उसी के नाम से इक्ष्वाकु वंशावली का नामकरण भी हुआ।25 दूसरी ओर जैन पुराणों का मत है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव की राजधानी नगर के रूप में सौधर्म इन्द्र ने अयोध्या नगरी का निर्माण किया तथा 'इक्षु' के नाम पर इस राजवंशावली को 'इक्ष्वाकु' नाम मिला।26 सूर्यवंश तथा चन्द्रवंश की उत्पत्ति के बारे में भी दोनों परम्पराएं एक मत नहीं। वैदिक परम्परा के अनुसार मनु से सूर्यवंश चला और मनु की पुत्री इला से चन्द्रवंश/227 उधर जैन पुराणकारों के अनुसार भरत चक्रवर्ती के पुत्र ‘अर्ककीर्ति' से सूर्यवंश की शाखा चली तो बाहुबली के पुत्र ‘सोमयश' से चन्द्रवंश की शाखा का प्रारम्भ हुआ।228 जैन पुराणों के मतानुसार प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव के बाद चक्रवर्ती भरत से लेकर मृगाङ्क तक जिन बत्तीस राजाओं के नाम इक्ष्वाकु वंशावली के अन्तर्गत परिगणित हैं उनमें से कोई एक नाम भी वैदिक परम्परा की वंशावली से नहीं मिलता। इसी प्रकार द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ के अन्तराल की इक्ष्वाकु वंशावली के केवल दो राजाओं के नाम - चक्रवर्ती सगर तथा भगीरथ के नाम वैदिक परम्परा से मिलते हैं। बीसवें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ के अन्तराल से प्रारम्भ होने वाली इक्ष्वाकु वंशावली में राजा 'नघुष' जैन पुराणों के अनुसार 'सुदास' के रूप में भी प्रसिद्ध था।30 इसी 'सुदास' का नरमांसभक्षी पुत्र जैन पुराणों में 'सौदास' अथवा 'सिंह सौदास' के रूप में प्रसिद्ध हुआ।31 उधर वैदिक परम्परा में 'सुदास' 51वीं पीढ़ी का ऐक्ष्वाक राजा था और वेदों का प्रसिद्ध मन्त्रद्रष्टा ऋषि भी रहा।233 इसी सुदास का पुत्र 'मित्रसह' वैदिक पुराणों में 'कल्माषपाद सौदास' के रूप में प्रसिद्ध हुआ। ऋषि वसिष्ठ के शाप के कारण 'मित्रसह' के पैर काले हो गए थे इसलिए उसे 'कल्माषपाद' कहा जाने लगा था। जो भी हो पूर्वापर सम्बन्धों को देखते हुए ये दोनों 'सौदास' भी अभिन्न सिद्ध नहीं होते। जैन इक्ष्वाकु वंशावली में पृथु के बाद अज तथा सूर्यरथ के बाद मान्धाता का उल्लेख मिलता है जबकि वैदिक पुराणों के अनुसार रघु का पुत्र
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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