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अनेकान्त 61/1-2-3-4
में कहा है कि विद्वान लोग कन्दमूलादि की जाँच करें और फिर उसके नतीजे सूचित करें ।
तीसरा लेख 'अस्पृश्यता निवारक आंदोलन' शीर्षक से है। यह निबन्ध मुख्तार जी ने सन् 1921 में लिखा था, जो बम्बई से प्रकाशित 'जैन हितैषी' पत्रिका के जुलाई 1921 के अंक में प्रकाशित हुआ था । इस लेख की प्रेरणा लेखक को उस समय महात्मा गाँधी द्वारा चलाये जा रहे अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन से प्राप्त हुई थी। इसमें मुख्तार जी ने जैन धर्म की दृष्टि से अस्पृश्यता और स्पृश्यता पर विचार करके कहा था कि अछूतों पर अर्से से बहुत बड़े अन्याय और अत्याचार हो रहे हैं और इसलिए हमें अब उन सबका प्रायश्चित ज़रूर करना होगा ।
चतुर्थ लेख 'देवगढ़ के मंदिर मूर्तियों की दुर्दशा' से सम्बन्धित है, जो दिसम्बर 1930 के 'अनेकान्त' में प्रकाशित हुआ था । यह मुख्तारजी के निजी अनुभव पर आधारित है । यद्यपि बाद में तो इस तीर्थ की व्यवस्था और सुरक्षा में काफी सुधार आया किन्तु स्वतंत्रता के पूर्व देवों के गढ़ रूप देवगढ़ सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध इस जैन तीर्थ की दुर्दशा भी उन्होंने इस लेख में वर्णित की है। उन्होंने उस दुर्दशा का वर्णन दुःखी हृदय से करते हुए लिखा है कि इन करुण दृश्यों तथा अपमानित पूजा स्थानों को देखकर और अतीत गौरव का स्मरण करके हृदय में बार-बार दुःख की लहरें उठती थीं, रोना आता था, और उस दुःख से भरे हुए हृदय को लेकर ही मैं पर्वत से नीचे उतरा
था ।
पंचम निबंध 'ऊँच-गोत्र का व्यवहार कहाँ ?' है जो षट्खण्डागम के 'वेदना' नामक चतुर्थ खण्ड के चौबीस अधिकारों में से पाँचवें 'पयडि' अधिकार पर आधारित है। यह लेख नवम्बर 1938 के अनेकान्त में प्रकाशित हुआ था । उन्होंने इसमें उच्च गोत्र से संबंधित अनेक प्रश्न उपस्थित किये हैं ।
छठा निबंध 'महत्त्व की प्रश्नोत्तरी' शीर्षक से है । यह प्रश्नोत्तरी महाराजा अमोघवर्षकृत 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' के आधार पर नये ढंग से संकलित की गई है । इसके कुछ प्रश्न और उनके उत्तर द्रष्टव्य हैं: 1. प्रश्न - संसार में सार क्या है ? उत्तर - मनुष्य होकर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना और स्व-पर के हितसाधन में सदा उद्यमी रहना। 2. प्रश्न- अन्धा कौन है ? उत्तर- जो न करने योग्य कार्य के करने में लीन है। 3. प्रश्न- बहरा कौन है ? उत्तर- जो हित की बातें नहीं सुनता।