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________________ 130 अनेकान्त 61/1-2-3-4 प्राप्त हुआ था, वह द्रव्य कहलाता है (धवला, प्रक्रम अनुयोगद्वार; पु० 15, पृ० 33)। इस प्रकार, हम देखते हैं कि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार एवं समयसार - इन परमागमस्वरूप ग्रन्थत्रय पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित टीकाओं में परस्पर इस विषय पर न केवल पूर्ण संगति है; बल्कि उनकी व्याख्याएं मूलग्रन्थकार आचार्य कुन्दकुन्द, तथा भट्ट अकलंकदेव व वीरसेन स्वामी जैसे प्रामाणिक आचार्यों के वचनों के भी पूर्णतः अविरुद्ध हैं; जैसा कि स्वाभाविक रूप से, ऐसे महान आचार्य से अपेक्षित ही है। फिर भी, पर्यायों की तथाकथित क्रमबद्धता का समर्थक कोई व्यक्ति, आचार्यश्री के कुछ वचनों का – बिना किसी अन्तर्बाह्य साक्ष्य के- यदि ऐसा अर्थ करता है कि जिससे उनकी तीनों टीकाकृतियों के बीच ही अर्थ की विसंगति (inconsistency) का प्रसंग पैदा हो जाए, तो उस व्यक्ति के ऐसे प्रयास को मजबूरन, न केवल ऐसे महान् आचार्य की, बल्कि समस्त जिनवाणी की भी, विराधना करने का दुष्प्रयास ही समझना पड़ेगा। 5.5 'तत्त्वार्थसूत्र'-आधारित कृतियों से अविरोध : ऊपर दिये गए अनेकानेक साक्ष्यों को देखने के बाद भी, यदि किसी जिज्ञासु को कोई सन्देह रह गया हो, तो उसे आचार्य अमृतचन्द्र की स्वतन्त्र कृति तत्त्वार्थसार के तृतीय अधिकार में 'परिणाम', 'उत्पाद' एवं 'व्यय' का निरूपण देखना चाहिये : स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः। परिणामः स निर्दिष्टो ... जिनैः।।46 ।। द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च। भावान्तरपरिप्राप्तिः निजां जातिमनुज्झतः ।।6।। स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि। विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते ।।7।। अर्थ : अपनी जाति का विरोध न करते हुए (अर्थात् जात्यन्तरण के विरोधपूर्वक) वस्तु का जो विकार है उसे जिनेन्द्र भगवान ने परिणाम कहा है। अपनी (चैतन्य अथवा पौद्गलिक आदि) जाति को नहीं छोड़ते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य को जो पर्यायान्तर की प्राप्ति होती है, वह उत्पाद कहलाता है। अपनी जाति का विरोध न करते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य की पूर्व पर्याय का जो नाश है. वह व्यय कहलाता है।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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