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________________ अनेकान्त 61 1-2-3-4 129 का प्रयास करने के बजाय, पूर्वाग्रह-रहित होकर उस भावार्थ को ग्रहण करे जो कि न केवल सन्दर्भ-सगत हो अपितु जिनागम में उसी विषय का प्रतिपादन अन्यत्र भी जहॉ किया गया हो, वहाँ भी उस भावार्थ की भली-भॉति सगति बैठती हो। 5.3 ‘समयव्याख्या' से अविरोध : पचास्तिकाय, गाथा 10 की समयव्याख्या मे आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां सन्ताने ... अर्थात् एक जाति की अविरोधी अथवा जात्यन्तरण या द्रव्यान्तरण की विरोधी क्रमवर्ती पर्यायो का प्रवाह, उसमे ...। अब देखिये, यहाँ आचार्यश्री स्वयं पर्यायों मे द्रव्यान्तरणविरोध की विशेषता को प्रतिपादित कर रहे हैं, तब फिर द्रव्यान्तरण को रोकने के हेतु उन पर्यायों में कथित 'क्रमबद्धता' की कल्पना करने का क्या औचित्य है? 5.4 अन्य आर्ष आचार्यों की कृतियों से अविरोध : ऊपर के तीनो उप-अनुच्छेदो मे उल्लिखित अमृतचन्द्रसूरि के कथन, मूलग्रन्थकार आचार्य कुन्दकुन्द के वचनो का तो अनुसरण करते ही है, साथ ही अपने पूर्ववर्ती आचार्य अकलकदेव द्वारा दी गई 'परिणाम' की परिभाषा का भी सम्यक भावानुसरण करते है द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन विकारः ... परिणामः । द्रव्यस्य चेतनस्येतरस्य वा द्रव्यार्थिकनयस्य अविवक्षातो न्यग्भूतां स्वां द्रव्यजातिमजहतः पर्यायार्थिकनयार्पणात् प्राधान्यं विम्रता केनचित् पर्यायेण प्रादुर्भाव पूर्वपर्यायनिवृत्तिपूर्वको विकारः परिणाम इति प्रतिपत्तव्यः अर्थात द्रव्य का अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को नहीं छोडते हुए जो परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते है, द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नही है, फिर भी द्रव्यार्थिकनय की अविवक्षा ओर पर्यायार्थिकनय की प्रधानता मे उसका पृथक व्यवहार हो जाता है, तात्पर्य यह है कि अपनी मौलिक जाति को न छोडते हुए, पूर्वपर्याय की निवृत्तिपूर्वक, जो उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना है, वही परिणाम है। षट्खण्डागम के समर्थ टीकाकार एव अमृतचन्द्रसूरि के पूर्ववर्ती, आचार्य वीरसेन भी ऐसा ही अभिप्राय प्रकट करते है स्वकासाधारणलक्षणापरित्यागेन द्रव्यान्तरासाधारणलक्षणपरिहारेण द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् अर्थात् अपने असाधारणलक्षणमय स्वरूप को न छोड़ते हुए, तथा दूसरे द्रव्यो के असाधारण लक्षण का परिहार करते हुए (यानी उसका ग्रहण न करते हुए). जो उन-उन पर्यायो को वर्तमान मे प्राप्त होता है, भविष्य में प्राप्त होगा, व भूत मे
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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