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अनेकान्त 61/1-2-3-4
इसके वावजूद उन्होंने जितने परिमाण में साहित्य सर्जना की, उसमें यथेष्ट गुणात्मकता भी है।
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डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इनके विषय में लिखा है कि वे अध्ययन और मनन द्वारा जिन निष्पत्तियों को ग्रहण करते थे, उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिए भेज देते थे । निबन्ध लिखना और मौजी बहार में आकर कविता लिखना इनकी दैनिक प्रवृत्ति के अन्तर्गत था ।
पं. मुख्तार जी ने अपने समय में शताधिक अनुसंधानपरक तथा कुछ न कुछ नये तथ्यों से युक्त निबंध लिखे, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भ हुए । 'अनेकान्त' जेसी प्रतिष्ठित पत्रिका के तो वे सम्पादक ओर प्रतिष्ठापक ही नहीं, अपितु प्राण थे । इसमें आपके सम्पादकीय के अतिरिक्त शोधपरक निबन्ध, ग्रन्थ-समीक्षायें तथा शोधात्मक टिप्पणियां भी नियमित प्रकाशित होती थीं । अनेकान्त पत्रिका का अपने समय में जेन धर्म, साहित्य और संस्कृति के विकास में जो योगदान रहा है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इसके पुराने अंक देखने पर इन तथ्यो की यथार्थता अपने आप सामने आ जाती है।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आपके द्वारा लिखित अनुसंधानपरक एव समसामयिक निवन्धों का संग्रह 'युगवीर निवन्धावली' नाम से दो खण्डों में प्रकाशित हे जिसमें समाज-सुधारात्मक एवं गवेषणात्मक निबन्ध हैं । प्रथम खण्ड में 41 और द्वितीय खण्ड में 65 निबन्धों का संकलन है। इन निवन्धों में इनके लेखनकाल के सामाजिक, साहित्यिक एवं प्रवृत्तिमूलक इतिहास की झलक देखने को मिलती है। इस निबंधावली के द्वितीय खण्ड में उत्तरात्मक, समालोचनात्मक, परिचयात्मक, विनोद - शिक्षात्मक एवं प्रकीर्णक इन विषयों के जिन 65 निवन्धों का संकलन है, उनमें प्रकीर्णक निबन्धों के अन्तर्गत 12 निवन्ध हैं जो प्रायः सामाजिक, शास्त्रीय एवं सेद्धान्तिक मतभेदों के शमन हेतु 'समाधान' रूप में लिखे गये हैं ।
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प्रकीर्णक निबन्धों में आरम्भिक तीन निबंध इनके समय में बड़े चर्चित विषयों से सम्बन्धित हैं। इनमें प्रथम है 'क्या मुनि कन्दमूल खा सकते हैं?" वस्तुतः हमारे आगमों में श्रावक और श्रमणों के आचार-विचार सम्बन्धी विषयों का स्पष्ट विवेचन मिलता है; किन्तु समय-समय पर उनका पूर्वापर - सम्बन्धरहित अर्थ एवं उस शब्दावली, आशय और परिवेश को समझे बिना अर्थ किया जाता