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अनेकान्त 61/1-2-3-4
नामक वस्तु के स्वयं के उपादान की अपेक्षा से है । केवलज्ञान का त्रिकालवर्ती पर्यायोंरूप विषय हमारे लिये मात्र श्रद्धा की विषयवस्तु है; हम जीवद्रव्यों की प्रतिक्षण होने वाली प्रवृत्ति "केवलज्ञान में हमारे विषय में क्या झलका” इससे प्रेरित नहीं हो सकती । इसका गौण कारण तो यह है कि इस बात का न तो हमें ज्ञान है, और न ही हो सकता है; तथा मुख्य कारण यह है कि निज उपादान - आधारित कारणकार्यभाव का आश्रय लेकर ही प्रत्येक जीवपदार्थ का परिणमन होना सम्भव है, और होता भी है ।
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दूसरे शब्दों में, अपने मति - श्रुतज्ञान का आश्रय लेकर ( जितना भी मति - श्रुतज्ञान वर्तमान में हमें उपलब्ध है, उसी का आश्रय लेकर) अपनी परिणति को सुधारने के लिये वीतरागी, सम्यग्ज्ञानी, आर्ष आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध आगम के माध्यम से जो केवलज्ञानी-प्रणीत उपदेश हमें वर्तमान में प्राप्त है, उसी का अनुसरण करते हुए - हमें अपनी वर्तमान भूमिका के अनुरूप प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग को अपनाना है। यह बात भी अवश्य है कि हमारी वह प्रवृत्ति गुणस्थानों के अनुसार हमारी कषायादिक की जो भी वर्तमान स्थिति है उसकी भी सापेक्षता अवश्य रखेगी ।
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22. स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा के कथन का सम्यग् अभिप्राय
स्वामी कुमार द्वारा रचित अनुप्रेक्षा- ग्रन्थ की, वर्तमान समय में बहुचर्चित गाथाएं ग्रन्थ के बारहवें प्रकरण 'धर्मानुप्रेक्षा' के अन्तर्गत आई हैं। पहले सम्यग्दृष्टि के तत्त्वश्रद्धान का स्वरूप समझाकर फिर वहाँ गाथाचतुष्क 319-22 द्वारा बताया गया है कि विभिन्न लौकिक परिस्थितियों से गुज़रते हुए अविरत सम्यग्दृष्टि साधक किस प्रकार के चिन्तवन के अवलम्बन से स्वयं को तीव्र रागद्वेषात्मक विकल्पों में बह जाने से रोकता है :
ण य को वि देदि लच्छी को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि । । मत्ती पुज्जमाणो विंतर - देवो वि देदि जदि लच्छी । किं धम्म कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी || जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि |
जं जस्स जम्मि देसे
णादं जिणेण णियदं
जम्मं वा अहव मरणं वा । ।
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि |
को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिनिंदो वा । 1319-322 । ।