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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 99 सम्यग्ज्ञानी, निष्परिग्रही गुरु आदि बहिरंग निमित्तो की कोटि मे आएंगे]। अब, शेष बचे, 'काल' एवं 'नियति । क्या इन दोनों का स्तर उपादान का है? उत्तर है कि नहीं। तो, क्या इनका स्तर निमित्त का है? ज्ञातव्य है कि निमित्त का निरूपण करते हुए आर्ष आचार्यों ने 'प्रत्यासत्ति' अथवा 'सान्निध्य' को निमित्त की अवधारणा का आवश्यक अंग बतलाया है,108 और इसीलिये निमित्त को 'सन्निधिप्रत्यय' भी कहा गया है ।109 जहाँ तक कालाणुओ की बात है सो उनका सान्निध्य तो जीव-पुद्गलादि को मिला ही हुआ है, और कालद्रव्य को सभी द्रव्यो के परिणमन मे साधारण अथवा उदासीन निमित्त माना ही गया है। अस्तित्वमय कालद्रव्य तो जिनागम मे स्वीकार्य है, किन्तु 'नियति' तो कोई सत्तायुक्त पदार्थ है नही, फिर नियति के साथ विवक्षित जीवपदार्थ का सान्निध्य कैसे बन सकेगा (जिस जीवपदार्थरूपी उपादान की कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध मे यह सम्पूर्ण लेख प्रस्तुत है)? तात्पर्य यह है कि नियति' को निमित्त की कोटि में रखने पर, अस्तित्वविहीन आकाशपुष्प, वन्ध्यापुत्र आदि को भी निमित्त मानने का प्रसंग आ खडा होगा। तो फिर, कौन सी कोटि मे रखना चाहिये, 'नियति' को? विशेषत पिछले दो-तीन अनुच्छेदो मे किया गया विश्लेषण स्वत उत्तर पेश करता है - जिनागम के ज्ञाता महान, आर्ष आचार्यो द्वारा निरूपित 'कारण', 'साधन/निमित्त आदि की अवधारणाओ के साथ सगति (consistency) बनाए रखना तभी सम्भव हो सकेगा जब सन्मतिसूत्र की गाथा मे उल्लिखित 'नियति' को एक 'उपचरित हेतु' माना जाए। कहने की आवश्यकता नही कि यह उत्तर प्राचीन नियतिवादी की उपर्युक्त आपत्ति का भी न्यायानुकूल, युक्तियुक्त एव आगमानुसारी समाधान प्रस्तुत करता है। (नियति को उपचरित हेतु मानने के पीछे आचार्यों का क्या प्रयोजन रहा है, इसकी चर्चा अनुच्छेद 22 मे करेगे।) ऊपर कालद्रव्य का जिक्र किया, सो कालद्रव्य का सान्निध्य ही क्या काललब्धि है? यदि 'हॉ', तो पुनः एक आपत्ति आ खडी होगी जो समस्त जीवो के लिये एक-सदश है, ऐसा वह कालद्रव्य (निश्चयकालरूपी शुद्ध पदार्थ, जो कि उदासीन निमित्त है) विभिन्न ससारी जीवो के विभिन्न कार्यों मे विविधरूप से हेतु कैसे हो सकेगा? तब फिर, क्या अमुक जीव के लिये अमुक 'व्यवहार काल' का कोई महत्त्व हो सकता है? इस प्रश्न पर विचार अनुच्छेद 23 मे करेगे। 21. भविष्यत् पर्यायें : उनका केवलज्ञान में झलकना साधक के लिये मात्र श्रद्धा का विषय है, न कि प्रवृत्ति का ससरणरूप और मोक्षमार्गरूप, दोनों ही प्रकार का परिणमन मूलत इस जीव
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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