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________________ 100 अनेकान्त 60/1-2 वाक्य एक धर्ममुखेन वस्तुका प्रतिपादन करते हैं तो प्रमाण वाक्य माने जावेंगे। यदि इस एक धर्म को वस्तु का अंश न मानकर तन्मात्र ही वस्तु मान ली जाती है और फिर इन वाक्यों का प्रयोग किया जाता है तो यह दोनों वाक्य प्रमाणाभास माने जावेंगे। यदि इन दोनों वाक्यों का सम्मिलित प्रयोग किया जाता है और सम्मिलित होकर प्रयुक्त ये दोनों वाक्य सही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं तो ये वाक्य नय माने जावेंगे। यदि सम्मिलित होकर भी ये दोनों वाक्य गलत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं तो नयाभास कहे जावेंगे। जैसे “द्रव्यदृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से वस्त अनित्य है, यह तो नय है और पर्याय दृष्टि से वस्त नित्य है तथा द्रव्य दृष्टि से वस्तु अनित्य है, यह नयाभास माना जायेगा इसीलिए परार्थ श्रुतका विवेचन करते समय विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करने वाले वाक्य और महावाक्य को प्रमाण और विवक्षित अर्थ के एक अंश का प्रतिपादन करने वाले, वाक्य और महावाक्य के अंगभूत पद वाक्य और महावाक्य को नय मानकर जो इनका समन्वय किया गया है वह वस्तु व्यवस्था के लिए घातक नहीं, बल्कि अधिक उपयोगी है। शंका - जिस प्रकार दो पदों का समुदाय वाक्य और दो वाक्यों का अथवा दो महावाक्यों का समुदाय महावाक्य होता है और इनके अवयव मानकर पद, वाक्य और महावाक्यों को नय वाक्य मान लिया गया है उसी प्रकार दो ज्ञानों के समुदाय को एक महा ज्ञान मानकर उसके अंश भूत एक-एक ज्ञान को नय ज्ञान भी माना जा सकता है, इसलिये स्वार्थ प्रमाण स्वरूप मतिज्ञानादिक में भी नयकल्पना मानना चाहिये। समाधान – जिस तरह दो आदि पदों अथवा दो आदि वाक्यों या दो आदि महावाक्यों का समुदाय अनुभवगम्य है उसी प्रकार दो आदि ज्ञानों का समुदाय अनुभव गम्य नहीं है हमें नेत्रों से होने वाले रूप विशिष्ट वस्तु के ज्ञान और रसना से होने वाले रसविशिष्ट वस्तु के ज्ञान का समुदाय रूप से कभी भी अनुभव नहीं होता हैं। इसलिये स्वार्थ प्रमाण स्वरूप मतिज्ञानादि चार ज्ञानों में नय-परिकल्पना किसी भी हालत
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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