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________________ अनेकान्त 60/1-2 और कहीं किसी महावाक्य के अवयव होकर भी ये दोनों वाक्य और महावाक्य प्रयुक्त किये जाते हैं। जहां ये स्वतंत्र रूप से अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ होते हैं वहां इनका प्रयोग स्वतंत्र होता है और जहाँ ये अर्थ का प्रतिपादन न करके केवल अर्थ के अंश का प्रतिपादन करते है वहां ये किसी महावाक्य के अवयव होकर प्रयुक्त किये जाते है। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पद अर्थ के अंश का ही प्रतिपादक होता है और वाक्य तथा महावाक्य कहीं अर्थ का और कहीं अर्थ के अंश का भी प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार परार्थश्रुत अपने आप दो भेदों में विभक्त हो जाता है-एक अर्थ का प्रतिपादक परार्थश्रुत और दूसरा अर्थ के अंश का प्रतिपादक परार्थश्रृत। इनमें से अर्थ का प्रतिपादक परार्थश्रुत वाक्य और महावाक्य के भेद से दो प्रकार का होता है और अर्थ के अंश का प्रतिपादक पदार्थश्रुत पद, वाक्य और महावाक्य के भेद से तीन प्रकार का समझना चाहिये। इन्हीं दोनों की क्रम से प्रमाण और नय संज्ञा मानी गयी हैं अर्थात् अर्थ का प्रतिपादन करने वाले वाक्य और महावाक्य प्रमाण-कोटि में और अर्थ के अंश का प्रतिपादन करने वाले पद, वाक्य और महावाक्य नय-कोटि में अन्तर्भूत होते हैं। क्योंकि प्रमाण को सकलादेशी9 । अर्थात् अनेक धर्मो-अंशों की पिंडभूत वस्तु को विषय करने वाला और नय को विकलादेशी19 ॥ अर्थात् अनेक धर्मो की पिडभूत वस्तु के एक-एक धर्म विषय करने वाला माना गया है। अथवा यों कह सकते हैं कि जो वचन विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करता है वह प्रमाण और जो वचन विवक्षित अर्थ के एक देश का प्रतिपादन करता है वह नय कहलाता है। जैसे, पानी की जरूरत होने पर स्वामी नौकर को आदेश देता है-'पानी लाओ।' नौकर भी इस एक ही वाक्य से अपने स्वामी के अर्थ को समझ कर पानी लाने के लिये चल देता है, इसलिये यह वाक्य प्रमाण वाक्य कहा जायगा और इस वाक्य में प्रयुक्त 'पानी' और 'लाओ' ये दोनों पद स्वतंत्र रूप से अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं हैं, बल्कि अर्थ के एक-एक अंश का प्रतिपादन करने वाले है, इसलिये इन दोनों पदों को नय-पद कहेंगे।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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