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________________ अनेकान्त 60/1-2 कारणभूत ज्ञानगुण के विकास को 'श्रुतज्ञानलब्धि' समझना चहिये अर्थात् श्रोता में श्रुतज्ञानावरणकर्म के अभाव से पैदा हुआ आत्मा के ज्ञानगुण का श्रुतज्ञानलब्धि रूप विकास ही वक्ता के शब्दों को सुनते ही मन की सहायता से होने वाले शब्दार्थज्ञानरूप श्रुतज्ञान में परिणत हो जाया करता है। 88 ये दोनों मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ऐन्द्रियिक ज्ञान माने गये है; कारण कि मतिज्ञान पूर्वोक्त प्रकार से पांच इन्द्रियों और मन की सहायता से और श्रुतज्ञान अंतरंग इन्द्रिय स्वरूप मन की सहायता से हुआ करता है । श्रुतज्ञान और मानस- प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में इतना अन्तर है कि श्रुतज्ञान में श्रोताको वक्ता के शब्द सुनने के बाद उन शब्दों के प्रतिपाद्य अर्थ का ज्ञान मन की सहायता से होता है और मानस - प्रत्यक्ष रूप मतिज्ञान में शब्द-श्रवण की अपेक्षारहित साक्षात् पदार्थ का ही ज्ञान ज्ञाता को मन की सहायता से हुआ करता है । पदार्थज्ञान में शब्दश्रवण को कारण मानने की वजह से ही श्रुतज्ञान को श्रुत नाम दिया गया" है । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान अतीन्द्रिय माने गये हैं; क्योंकि इन तीनों ज्ञानों में इन्द्रियादि बाह्य निमित्तां की सहायता की अपेक्षा जैनधर्म ने नहीं मानी है । इनके विषय मे जैनधर्म की मान्यता यह है कि ज्ञाता में अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कर्मो के अभाव से पैदा हुआ आत्मा के ज्ञान गुण का क्रम से अवधिज्ञानलब्धि, मन:पर्ययज्ञानलब्धि और केवलज्ञानलब्धि रूप विकास ही पदार्थ का सान्निध्य पाकर बाह्य इन्द्रियादिक की सहायता के बिना ही स्वभावतः अवधिज्ञानोपयोग, मन:पर्ययज्ञानोपयोग और केवलज्ञानोपयोग रूप परिणत हो जाया करता है । जैनधर्म में इन पांचों प्रकार की ज्ञानलब्धियों और पांचों प्रकार के ज्ञानोपयोगों को प्रमाण माना गया है, इसलिये प्रमाण कहे जाने वाले ज्ञान के उल्लिखित पांच भेद ज्ञानलब्धि और ज्ञानोपयोग दोनो के
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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